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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 73/ मन्त्र 15
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    मा नो॒ गव्ये॑भि॒रश्व्यै॑: स॒हस्रे॑भि॒रति॑ ख्यतम् । अन्ति॒ षद्भू॑तु वा॒मव॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । नः॒ । गव्ये॑भिः । अश्व्यैः॑ । स॒हस्रे॑भिः । अति॑ । ख्य॒त॒म् । अन्ति॑ । सत् । भू॒तु॒ । वा॒म् । अवः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नो गव्येभिरश्व्यै: सहस्रेभिरति ख्यतम् । अन्ति षद्भूतु वामव: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । नः । गव्येभिः । अश्व्यैः । सहस्रेभिः । अति । ख्यतम् । अन्ति । सत् । भूतु । वाम् । अवः ॥ ८.७३.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 73; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    With all the thousandfold wealth of lands and cows and horses and achievements, pray do not leave us, do not forsake us. Let your protections and promotions ever remain with us at the closest.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजा व राजपुरुषांनी असा प्रबंध करावा की पशूंची न्यूनता देशात होता कामा नये. ॥१५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे अश्विनौ ! युवाम् । सहस्रेभिः=सहस्रैर्बहुभिः । गव्येभिः=गव्यैर्गोसमूहैः । अश्व्यैः=अश्वसमूहैः सह । नोऽस्मान् । मा नहि । अति+ख्यतम्=वियोजयतं दूरीकरुतमित्यर्थः ॥१५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे राजा ! और अमात्य ! (सहस्रेभिः) बहुत (गव्येभिः) गोसमूह से तथा (अश्व्येभिः) अश्वसमूह से (नः) हमको (मा+अति+ख्यतम्) वियोजित मत कीजिये, दूर मत कीजिये ॥१५ ॥

    भावार्थ

    पशुओं की भी न्यूनता देश में न हो, वैसा प्रबन्ध करे ॥१५ ॥

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    विषय

    स्त्रीपुरुषों को उत्तम उपदेश।

    भावार्थ

    ( सहस्रभिः गव्येभिः अश्व्येभिः नः मा अति ख्यतम् ) हमें सहस्रों, गौवों और अश्वों से वञ्चित मत करो। ( वाम् सद् अवः अन्तिभूतु ) आप लोगों का उत्तम दान सदा हमें प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, २, ४, ५, ७, ९–११, १६—१८ गायत्री। ३, ८, १२—१५ निचृद गायत्री। ६ विराड गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    निर्दोष इन्द्रियाँ

    पदार्थ

    [१] हे प्राणापानो! आप (नः) = हमें (सहस्त्रेभिः) = प्रसन्न - पूर्ण विकासवाले (गव्येभिः) = ज्ञानेन्द्रियसमूहों से तथा (अश्व्यैः) = कर्मेन्द्रियसमूहों से (मा अतिख्यतम्) = निवारित मत करो मत वञ्चित करो। प्राणसाधना के द्वारा हमें अवश्य उत्तम ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ प्राप्त हों। [२] हे प्राणापानो! (वाम्) = आपका (अवः) = रक्षण (सत्) = उत्तम है। यह हमें (अन्ति भूतु) = समीपता से प्राप्त हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से इन्द्रियाँ निर्दोष न बनें ऐसा नहीं होता।

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