ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 73/ मन्त्र 3
उप॑ स्तृणीत॒मत्र॑ये हि॒मेन॑ घ॒र्मम॑श्विना । अन्ति॒ षद्भू॑तु वा॒मव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । स्तृ॒णी॒त॒म् । अत्र॑ये । हि॒मेन॑ । घ॒र्मम् । अ॒श्वि॒ना॒ । अन्ति॑ । सत् । भू॒तु॒ । वा॒म् । अवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उप स्तृणीतमत्रये हिमेन घर्ममश्विना । अन्ति षद्भूतु वामव: ॥
स्वर रहित पद पाठउप । स्तृणीतम् । अत्रये । हिमेन । घर्मम् । अश्विना । अन्ति । सत् । भूतु । वाम् । अवः ॥ ८.७३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 73; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
With the cool of comfort and security like snow, cover the misfortunes of the man bereft of threefold security for body, mind and soul in life. Let your protections be with us at the closest.
मराठी (1)
भावार्थ
अत्रि. १- ईश्वराशिवाय तिन्ही लोकांत ज्याचा कोणी रक्षक नाही तो अत्रि-जसे-२-त्रि = त्र= रक्षण. रक्षार्थक त्रै धातूने त्रि बनतो. ज्याचे रक्षण कुठूनच होत नाही तो अत्रि होय. ३ - जसे माता, पिता व भ्राता हे तिन्ही ज्याला नसतात तो अत्रि. अशा माणसाचे रक्षण राजाने करावे, हा उपदेश आहे. ॥३॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अश्विना=अश्विनौ । अत्रये=अत्रेः षष्ठ्यर्थे चतुर्थी । त्रिषु लोकेषु ईश्वराद् भिन्नो न कश्चिद्रक्षको विद्यते यस्य सोऽत्रिः । साहाय्यहीनः । यद्वा त्रि=त्रं रक्षणम् । त्रैङ् पालने अस्माद्धातोः । यद्वा न त्रयो माता पिता भ्राता च यस्य सोऽत्रिः । मातृपितृभ्रातृविहीनः । ईदृशस्य अत्रेः । धर्मं सन्तापकं बुभुक्षादिकम् । हिमेन=हिमवच्छीतलेन अन्नादिना । उपस्तृणीतम्=शमयतम् ॥३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
राजा के प्रति द्वितीय कर्त्तव्य का उपदेश (अश्विना) हे प्रशस्ताश्वयुक्त महाराज तथा मन्त्री ! आप दोनों (अत्रये) मातृपितृभ्रातृविहीन जन के (धर्मम्) सन्तापक भूख आदि क्लेश को (हिमेन) हिमवत् शीत अन्नादिक से (उप+स्तृणीतम्) शान्त कीजिये (अन्ति) इत्यादि का अर्थ पूर्व में हो चुका ॥३ ॥
भावार्थ
नोट−अत्रि० १−ईश्वर को छोड़कर तीनों लोकों में जिसका कोई रक्षक नहीं है, वह अत्रि । यद्वा−
टिप्पणी
२−त्रि=त्र=रक्षण, रक्षार्थक त्रै धातु से त्रि बनता है । जिसका रक्षण कहीं से न हो, वह अत्रि । ३−यद्वा माता, पिता और भ्राता ये तीनों जिसके न हों, वह अत्रि । ऐसे आदमी की रक्षा राजा करे, यह उपदेश है ॥३ ॥
विषय
स्त्रीपुरुषों को उत्तम उपदेश।
भावार्थ
( अत्रये ) विविध तापों से निवृत्त होने के लिये हे (अश्विना ) अश्वोंवत् इन्द्रियों के संयमी जनो ! ( धर्मम् हिमेन ) दाह को शीतल जल से जिस प्रकार दूर किया जाता है उसी प्रकार सन्तप्त जन को शीतल चचन से ( उप स्तृणीतम् ) आच्छादित करो, उसका आदर सत्कार करो। ( वां अन्ति अवः सद् भूतु ) आप लोगों का सत् ज्ञान, व्यवहार हमें भी सदा प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, २, ४, ५, ७, ९–११, १६—१८ गायत्री। ३, ८, १२—१५ निचृद गायत्री। ६ विराड गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सोमरक्षण
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! आप (अत्रये) = 'काम-क्रोध व लोभ' इन तीनों से ऊपर उठनेवाले के लिए (घर्मं) = शरीर में होनेवाली शक्ति को उष्णता को (हिमेन) = प्रभु के स्तुतिवचनों द्वारा उत्पन्न शान्ति से- बर्फ से - (उपस्तृणीत) = आच्छादित करो। इस सोमकणों में वासना का उबाल न पैदा हो जाए। [२] हे प्राणापानो! (वाम् अवः सत्) = आपका रक्षण उत्तम है। यह रक्षण (अन्ति भूतु) = हमारे समीप हो ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से सोम [वीर्य] की शरीर में ऊर्ध्वगति होती है। वासनाओं के विनाश से सोम शान्त बना रहता है-उसमें उबाल नहीं आता।
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