ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 73/ मन्त्र 9
प्र स॒प्तव॑ध्रिरा॒शसा॒ धारा॑म॒ग्नेर॑शायत । अन्ति॒ षद्भू॑तु वा॒मव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । स॒प्तऽव॑ध्रिः । आ॒ऽशसा॑ । धारा॑म् । अ॒ग्नेः । अ॒शा॒य॒त॒ । अन्ति॑ । सत् । भू॒तु॒ । वा॒म् । अवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सप्तवध्रिराशसा धारामग्नेरशायत । अन्ति षद्भूतु वामव: ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । सप्तऽवध्रिः । आऽशसा । धाराम् । अग्नेः । अशायत । अन्ति । सत् । भूतु । वाम् । अवः ॥ ८.७३.९
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 73; मन्त्र » 9
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Ashvins, harbingers of peace and appreciation, reward and pacify the poet, master of seven metres who, with his hope and imagination, captures the flames of fire and passion in poetry and let your protection and patronage be with us at the closest.
मराठी (1)
भावार्थ
राज्यातील आप्त पुरुषांनीही प्रजारक्षण हे आपले कर्तव्य समजावे. ॥९॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अश्विनौ ! युवयो राज्ये । सप्तवध्रिः=सप्त गायत्र्यादीनि छन्दांसि बध्नानि काव्येषु यः स सप्तवध्रिर्महाकविर्महर्षिः । आशसा=भगवत्प्रशंसया । अग्नेः=प्रजानां बुभुक्षापिपासादि-रूपस्य अग्नेरग्निवत्संतापकस्यारोगस्य । धारां=ज्वालाम् । प्र+अशायत=प्रशमयति । युवामपि तथा कुरुतमित्यर्थः ॥९ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे अश्विद्वय ! तुम्हारे राज्य में (सप्तवध्रिः) काव्यों में सप्त छन्दों के बाँधनेवाले महाकवि महर्षि (आशसा) ईश्वर की स्तुति की सहायता से (अग्नेः) प्रजाओं की बुभुक्षा, पिपासा आदि अग्निसमान सन्तापक रोग की (धाराम्) महा ज्वाला को (प्र+अशायत) प्रशमन करते हैं । आप भी धन और रक्षा की सहायता से वैसा कीजिये ॥९ ॥
विषय
स्त्रीपुरुषों को उत्तम उपदेश।
भावार्थ
( सप्त-वध्रिः ) सातों प्राणों को शिथिल या दमन करने वाला विद्वान् ( आ-शसा ) उत्तम आशा से प्रेरित होकर ( अग्नेः धाराम् ) विद्वान् पुरुष की वाणी को ( प्र अशायत ) अच्छी प्रकार हृदय में धारण करे, उसी में नित्य रमण करे। (वाम् अवः सत् अन्ति भूतु ) आप दोनों की रक्षा और सत्-ज्ञान सदा हमारे समीप रहे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, २, ४, ५, ७, ९–११, १६—१८ गायत्री। ३, ८, १२—१५ निचृद गायत्री। ६ विराड गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
अग्नि का धारा का हृदय में शयन
पदार्थ
[१] (सप्तवधिः) = 'कर्णाविमौ नासिके अक्षणी मुखम्' दो कान, दो नासिकाछिद्र, दो आँखें व मुख रूप सातों इन्द्रियों को संयम रूप से बांधनेवाला यह उपासक आशसा उत्तम आशंसन व स्तवन के द्वारा (अग्नेः धाराम्) = [धारा - वाग् नि० १.११] उस अग्रेणी प्रभु की वाणी को (प्र आशायत) = अपने में निवास करता है। [२] हे प्राणापानो! (वां) = आप का (अवः) = रक्षण (सत्) = उत्तम है। उससे हम प्रभु की वाणी को सुन पाते हैं। वह रक्षण (अन्तिभूतु) = हमारे समीप हो। आपसे रक्षित हुए हुए हम पवित्र हृदय में प्रभु की वाणी को सुनें।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना मनुष्य को कान आदि सातों इन्द्रियों का संयम करने में समर्थ करती है। सो हमें प्राणापान का रक्षण प्राप्त हो।
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