ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 73/ मन्त्र 4
कुह॑ स्थ॒: कुह॑ जग्मथु॒: कुह॑ श्ये॒नेव॑ पेतथुः । अन्ति॒ षद्भू॑तु वा॒मव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठकुह॑ । स्थः॒ । कुह॑ । ज॒ग्म॒थुः॒ । कुह॑ । श्ये॒नाऽइ॑व । पे॒त॒थुः॒ । अन्ति॑ । सत् । भू॒तु॒ । वा॒म् । अवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कुह स्थ: कुह जग्मथु: कुह श्येनेव पेतथुः । अन्ति षद्भूतु वामव: ॥
स्वर रहित पद पाठकुह । स्थः । कुह । जग्मथुः । कुह । श्येनाऽइव । पेतथुः । अन्ति । सत् । भूतु । वाम् । अवः ॥ ८.७३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 73; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Where are you staying? Where had you gone while we called? Where did you fly away like the eagle? Pray be with us always with your constant protections at the closest on hand.
मराठी (1)
भावार्थ
जर प्रजेला राजाचे साह्य न मिळाले तर जेथे तो असेल तेथून त्याला बोलवावे. राजाने सर्व काम सोडून या रक्षणधर्माचे सर्व प्रकारे पालन करावे. ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमर्थमाह ।
पदार्थः
हे अश्विनौ ! युवाम् । इदानीं कुह=क्वस्थो भवथो वर्त्तेथे । कुह=क्व जग्मथुर्गच्छथः । कुह क्व च । श्येना=श्येनौ विहगौ इव । पेतथुः=पतथः । यत्र कुत्र च भवथस्तस्मात् स्थानादागत्य प्रजारक्षणं कुरुतम् । मुधैव इतश्चेतश्च मा गमतम् अन्ति गतम् ॥४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी अर्थ को कहते हैं ।
पदार्थ
हे अश्विद्वय ! (राजा और सचिव) इस समय (कुह) कहाँ आप दोनों (स्थः) हैं, (कुह) कहाँ गए हुए हैं । (कुह) कहाँ (श्येना+इव) दो श्येन पक्षी के समान उड़ कर बैठे हुए हैं, व्यर्थ इधर-उधर आपका जाना उचित नहीं । जहाँ कहीं हों, वहाँ से आकर प्रजाओं की रक्षा कीजिये । अन्ति० ॥४ ॥
भावार्थ
प्रजाओं के निकट यदि राजा या राजसाहाय्य न पहुँचे, तो जहाँ वे हों, वहाँ से उनको बुला लाना चाहिये । राजा सर्वकार्य को छोड़ इस रक्षाधर्म का सब प्रकार से पालन करे ॥४ ॥
विषय
स्त्रीपुरुषों को उत्तम उपदेश।
भावार्थ
( कुह स्थः ) आप कहीं रहो, ( कुह जग्मथु:) कहीं भी जाते हो, ( कुह श्येना इव पेतथुः ) कहीं भी दो श्येनों के समान वेग से, उत्तम आचार चरित्रवान् होकर गमन करो। ( वाम् अन्ति सद् अवः भूतु ) तुम दोनों के समीप सदा सत् ज्ञान, रक्षा बल अवश्य हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः—१, २, ४, ५, ७, ९–११, १६—१८ गायत्री। ३, ८, १२—१५ निचृद गायत्री। ६ विराड गायत्री॥ अष्टादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
आरोग्य [दोषों पर आक्रमण]
पदार्थ
[१] शरीर में सब इन्द्रियों का स्थान निश्चित है । परन्तु इन प्राणापान का स्थान अज्ञात ही है - सारे शरीर में ये विचरण करते हैं । ('कुह स्थः') = हे प्राणापानो! आप कहाँ होते हो? नासिकाछिद्र से बाहर (कुह जग्मथुः) = कहाँ जाते हो? और (कुह) = कहाँ (श्येन इव) = बाज पक्षी के समान (पेतथुः) = आक्रमण करते हो? जैसे बाज़ अपने शिकार पर झपट्टा मारता है, इसी प्रकार ये प्राणापान शरीरस्थ दोषों पर आक्रमण करते हैं 'प्राणायामैर्दहेद्दोषान् '। [२] हे प्राणापानो! (वाम् अवः सत्) = आपका रक्षण उत्तम है। वह रक्षण (अन्ति भूतु) = हमें समीपता से प्राप्त हो ।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणापान शरीरस्थ दोषों पर आक्रमण करते हैं। इस प्रकार प्राणसाधना से आरोग्य प्राप्त होता है।
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