ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 10
दु॒र्गे चि॑न्नः सु॒गं कृ॑धि गृणा॒न इ॑न्द्र गिर्वणः । त्वं च॑ मघव॒न्वश॑: ॥
स्वर सहित पद पाठदुः॒ऽगे । चि॒त् । नः॒ । सु॒ऽगम् । कृ॒धि॒ । गृ॒णा॒नः । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒णः॒ । त्वम् । च॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । वशः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दुर्गे चिन्नः सुगं कृधि गृणान इन्द्र गिर्वणः । त्वं च मघवन्वश: ॥
स्वर रहित पद पाठदुःऽगे । चित् । नः । सुऽगम् । कृधि । गृणानः । इन्द्र । गिर्वणः । त्वम् । च । मघऽवन् । वशः ॥ ८.९३.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, adorable lord, praised and prayed, turn even the difficult paths to simple and easy ones and, O lord of wealth, honour and power, do it as and when you wish, you are the master.
मराठी (1)
भावार्थ
माणसाच्या जीवनयात्रेचा प्रदेश नानाविध अडचणींनी व अडथळ्यांनी खडबडीत झालेला आहे. समतल नाही. (‘दुर्ग’ आहे) त्यात चालण्यासाठी समाहित मनाद्वारे सरळ मार्ग उपलब्ध होऊ शकतो. जेव्हा समाहित मन जीवात्म्याला वश होते तेव्हाच हे होऊ शकेल. ॥१०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (गिर्वणः) वेदवाणी द्वारा वन्दनीय (इन्द्र) मेरे मन! (दुर्गे चित्) अस्त-व्यस्त प्रदेश में (नः) हमारे लिये (सुगम्) सुखपूर्वक जाने योग्य मार्ग (कृधि) बना दे। (त्वं च) और तू, (मघवन्) हे आदरणीय ऐश्वर्य-बुद्धि के धनी मेरे मन! (वशः) मेरे वश में हो॥१०॥
भावार्थ
मानव की जीवनयात्रा का प्रदेश अनेकानेक कठिनाइयों तथा रुकावटों से ऊबड़-खाबड़ है। उसमें चलने हेतु सरल मार्ग समाहित मन से ही मिल सकता है। और यह भी तब जब समाहित मन भी जीवात्मा के वश में रहे॥१०॥
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( गिर्वणः ) वाणी द्वारा सेवनीय ! हे विद्वन् ! तू ( गृणानः ) स्तुति किया जाता हुआ, वा हमें उपदेश करता हुआ हे विद्वन् ! ( नः ) हमारे लिये ( दुर्गे ) दुर्गम स्थान में भी ( सुगं कृधि ) सुगम मार्ग कर। हे ( मघवन् ) ऐश्वर्यवन् ! ( त्वं च नः वशः ) और तू सदा हमें प्रेम से चाह और हमें अपने वश में रख। इति द्वाविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
दुर्गे चित् सुगम्
पदार्थ
[१] हे (गिर्वणः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा सम्भजनीय (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (गृणानः) = स्तुति किये जाते हुए आप (नः) = हमारे लिये (दुर्गे चित्) = दुर्गम मार्गों में भी (सुगं कृधि) = सुगमता से जाने का सम्भव करिये। हम धर्म के दुर्गम मार्गों में सुगमता से चल सकें। [२] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (वशः) = हमारे लिये सब ऐश्वर्यों के देने की कामना करिये।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु के अनुग्रह से हम धर्म के मार्गों पर आसानी से चल सकें। प्रभु के प्रिय होते हुए प्रभु से सब आवश्यक ऐश्वर्यों को प्राप्त करें।
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