Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 93 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 27
    ऋषिः - सुकक्षः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ ते॑ दधामीन्द्रि॒यमु॒क्था विश्वा॑ शतक्रतो । स्तो॒तृभ्य॑ इन्द्र मृळय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ते॒ । द॒धा॒मि॒ । इ॒न्द्रि॒यम् । उ॒क्था । विश्वा॑ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । इ॒न्द्र॒ । मृ॒ळ॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ ते दधामीन्द्रियमुक्था विश्वा शतक्रतो । स्तोतृभ्य इन्द्र मृळय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । ते । दधामि । इन्द्रियम् । उक्था । विश्वा । शतक्रतो इति शतऽक्रतो । स्तोतृऽभ्यः । इन्द्र । मृळय ॥ ८.९३.२७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 27
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord of infinite acts of grace, I hold in faith and abide by your divine power and law and I stand by all the divine injunctions of holiness and piety set out in holy writ. O lord omnipotent, Indra, be kind and gracious to the devoted celebrants.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोणत्याही कार्याचा आरंभ संकल्पानेच होतो. या मंत्रात सुखप्राप्तीचे मूळ वेदात वर्णित पदार्थविद्येला जाणण्याचा संकल्प सांगितलेला आहे. ॥२७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे (शतक्रतो) विविध प्रज्ञा एवं कर्मशक्तियुक्त प्रभो! मैं (ते) आपके द्वारा प्रदत्त (इन्द्रियम्) सर्व प्रकार के सूत्रों की प्राप्ति के ज्ञान-साधक उपायों को और (विश्वे) सभी (उक्था) वेदविद्याओं को (दधामि) धारण करने का संकल्प धारता हूँ। हे (इन्द्र) परमैश्वर्यवन्! (स्तोतृभ्यः) स्तोताओं को (मृळय) आनन्द दे॥२७॥

    भावार्थ

    प्रत्येक कार्य का आरम्भ संकल्प से होता है। प्रस्तुत मन्त्र में सुख प्राप्ति का मूल वेदवर्णित पदार्थ विद्याओं को जानने का संकल्प बताया गया है॥२७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।

    भावार्थ

    हे (शत-क्रतो) अपरिमित बल और ज्ञान से सम्पन्न स्वामिन् ! मैं ( ते ) तेरे लिये ( विश्वा उक्था ) समस्त स्तुति वचन और समस्त ( इन्द्रियम् ) राजादि से सेवनीय ऐश्वर्य ( आदधामि ) रखता हूं तुझे ही समाप्त करता हूँ। हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू ( स्तोतृभ्यः मृडय ) विद्वान् स्तोता, गुण प्रशंसकों को सुखी कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    इन्द्रिय-उक्था

    पदार्थ

    [१] हे (शतक्रतो) = अनन्त प्रज्ञान व शक्तिवाले प्रभो ! मैं (ते) = आपकी प्राप्ति के लिये (इन्द्रियं आदधामि) = अपने में वीर्य व बल की स्थापना करता हूँ शक्ति का रक्षण न करनेवाले को आप प्राप्त नहीं होते। हे प्रभो ! मैं (विश्वा उक्था) = सब स्तोत्रों को धारण करता हूँ। आपका स्तवन करता हुआ आपके अनुरूप बनने का प्रयत्न करता हूँ। [२] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (स्तोतृभ्यः) = स्तोताओं के लिये (मृडय) = सुख दीजिये ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु प्राप्ति के लिये प्रभु स्तवन व शक्ति का धारण आवश्यक है। यही सुख प्राप्ति का भी मार्ग है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top