Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 93 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 16
    ऋषिः - सुकक्षः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    श्रु॒तं वो॑ वृत्र॒हन्त॑मं॒ प्र शर्धं॑ चर्षणी॒नाम् । आ शु॑षे॒ राध॑से म॒हे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श्रु॒तम् । वः॒ । वृ॒त्र॒हन्ऽत॑मम् प्र शर्ध॑ञ् चर्षणी॒नाम् । आ शु॑षे॒ राध॑से म॒हे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    श्रुतं वो वृत्रहन्तमं प्र शर्धं चर्षणीनाम् । आ शुषे राधसे महे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    श्रुतम् । वः । वृत्रहन्ऽतमम् । प्र । शर्धं । चर्षणीनाम् । आ शुषे । राधसे । महे ॥ ८.९३.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 16
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    For your strength, high success and advancement, I strive for and try to attain to the highest strength of the people capable of fighting out and eliminating the darkness, ignorance and suffering of life.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्राचा आशय स्पष्ट आहे. माणसांचे मनोबलच त्यांच्या कामनांची पूर्ती व जीवनात सफलता मिळवून देते. त्यालाच दृढ बनविले पाहिजे. ॥१६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (चर्षणीनाम्) व्यक्तियों की (आशुषे) कामना पूर्ति हेतु और (महे) बड़ी (राधसे) सफलता के लिये (श्रुतम्) प्रसिद्ध; (वृत्रहन्तमम्) नितान्त श्रेष्ठ विघ्न नाशक (वः) अपने मनोबल को (प्र शर्ध) प्रकृष्ट बनाओ १६॥

    भावार्थ

    मन्त्र का तात्पर्य स्पष्ट है। व्यक्तियों का अपना मनोबल ही है जो उनकी कामनाएं पूर्ण कर जीवन में सफलता दिला सकता है। उसी को दृढ़ बनाओ॥१६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।

    भावार्थ

    ( वः ) आप लोगों में से आपके ( वृत्र-हन्तमम् ) सब विघ्नों के नाशक ( चर्षणीनां ) मनुष्यों में ( श्रुतं ) प्रसिद्ध ( शर्धं ) बलवान् पुरुष को ( शुषे ) शत्रुओं के शोषण और ( महे राधसे ) बड़े भारी धन प्राप्त करने के लिये ( प्र आ ) अच्छी प्रकार प्राप्त करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    आशुषे, राधसे महे

    पदार्थ

    [१] (आ शुषे) = समन्तात् शत्रुओं के शोषण के लिये [शुष से भाव में क्विप्] तथा (महे राधसे) = जीवन की महान् सफलता के लिये उस प्रभु का (प्र) = खूब ही स्तवन करो जो (श्रुतम्) = सब वेदवाणियों में सुने जाते हैं। (वः वृत्रहन्तमम्) = तुम्हारी वासनाओं का खूब ही विनाश करनेवाले हैं तथा (चर्षणीनाम्) = श्रमशील मनुष्यों के (शर्धम्) = बलभूत हैं। [२] जब हम प्रभु का स्मरण करेंगे, तो वे हमारी वासनाओं का विनाश करके हमें शक्ति प्रदान करेंगे। यह शक्ति ही हमें शत्रुओं के शोषण के लिये समर्थ करेगी और जीवन में महान् साफल्य को देगी।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु स्मरण हमें वासना-विनाश द्वारा शक्ति सम्पन्न बनाता है। हम शत्रुओं का शोषण करते हुए जीवन में सफलता को प्राप्त करते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top