ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 25
तुभ्यं॒ सोमा॑: सु॒ता इ॒मे स्ती॒र्णं ब॒र्हिर्वि॑भावसो । स्तो॒तृभ्य॒ इन्द्र॒मा व॑ह ॥
स्वर सहित पद पाठतुभ्य॑म् । सोमाः॑ । सु॒ताः । इ॒मे । स्ती॒र्णम् । ब॒र्हिः । वि॒भा॒व॒सो॒ इति॑ विभाऽवसो । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । इन्द्र॑म् । आ । व॒ह॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तुभ्यं सोमा: सुता इमे स्तीर्णं बर्हिर्विभावसो । स्तोतृभ्य इन्द्रमा वह ॥
स्वर रहित पद पाठतुभ्यम् । सोमाः । सुताः । इमे । स्तीर्णम् । बर्हिः । विभावसो इति विभाऽवसो । स्तोतृऽभ्यः । इन्द्रम् । आ । वह ॥ ८.९३.२५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 25
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord of light, the soma delicacies distilled and seasoned are ready for you. The holy grass seats are spread on the vedi. Pray come in and bring in Indra, wealth, honour and excellence of life for the celebrants.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराद्वारे निर्माण केलेल्या सृष्टिद्वारे ज्ञान प्राप्त करण्याचे अंतिम लक्ष्य परमेश्वरच आहे. त्याच्या गुणानुवादाने त्याचा महिमा हृदयावर अंकित होतो व आम्ही त्याच्या अधिकाधिक निकट जातो. ॥२५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे (विभावसो) विभिन्न ज्योतियों के वासदाता प्रभो! (इमे) ये सर्व ऐश्वर्य साधन पदार्थ (तुभ्यम्) आपको प्राप्त करने हेतु ही (सुताः) निचोड़े गये हैं--इनका सारभूत ज्ञान प्राप्त किया गया है; आप के हेतु (बर्हिः) हृदयरूपी आसन (स्तीर्णम्) बिछा है; (स्तोतृभ्यः) अपने गुणकीर्तन कर्ताओं को (इन्द्रम्) ऐश्वर्य को (आ, वह) ला दे॥२५॥
भावार्थ
प्रभु द्वारा रचित सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करने का अन्तिम लक्ष्य प्रभु ही है। उसके गुणानुवाद से उसकी महिमा हृदय पर छा जाती है और हम उसके अधिकाधिक समीप हो जाते हैं॥२५॥
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।
भावार्थ
हे ( विभावसो ) विशेष दीप्ति से युक्त ऐश्वर्य के स्वामिन् ! ( इमे सुताः सोमाः ) ये उत्पन्न प्रजा जन और ऐश्वर्यवान् शासकगण ( तुभ्यम् ) तेरे ही हितार्थ हैं और ( बर्हिः ) यह बृहत् राष्ट्र वा उत्तम आसन भी ( तुभ्यम् ) तेरे लिये ही ( स्तीर्णम् ) विस्तृत है। तू ( स्तोतृभ्यः ) विद्वानों के लिये ( इन्द्रम् आ वह ) ऐश्वर्य को प्राप्त करा, उन को प्रदान कर। इति पञ्चविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
सोमरक्षण- प्रभु प्राप्ति महत्त्व का अनुभव
पदार्थ
[१] हे (विभावसो) = विशिष्ट दीप्तियों के निवास स्थानभूत प्रभो! (तुभ्यम्) = आपकी प्राप्ति के लिये ही (इमे सोमाः सुताः) = ये सोमकण सम्पादित हुए हैं। शरीर में सोमकणों के रक्षण से ही उस महान् सोम [ शान्त प्रभु] की प्राप्ति होती है। हे प्रभो ! (बर्हिः स्तीर्णम्) = यह हृदयासन आप के बैठने के लिये बिछाया गया है। [२] हे प्रभो ! स्(तोतृभ्यः) = हम स्तोताओं के लिये (इन्द्रम्) = [इन्द्र=greatness] महत्त्व को, बड़प्पन को आवह प्राप्त कराइये। आपका स्तवन करते हुए हम बड़े बनें और तुच्छ भोगों से ऊपर उठें।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण द्वारा हम अपने हृदयासन पर प्रभु को बिठायें और अपने महत्त्व को समझते हुए तुच्छ भोगों से ऊपर उठें।
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