ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 12
अधा॑ ते॒ अप्र॑तिष्कुतं दे॒वी शुष्मं॑ सपर्यतः । उ॒भे सु॑शिप्र॒ रोद॑सी ॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । ते॒ । अप्र॑तिऽस्कुतम् । दे॒वी इति॑ । शुष्म॑म् । स॒प॒र्य॒तः॒ । उ॒भे इति॑ । सु॒ऽशि॒प्र॒ । रोद॑सि॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधा ते अप्रतिष्कुतं देवी शुष्मं सपर्यतः । उभे सुशिप्र रोदसी ॥
स्वर रहित पद पाठअध । ते । अप्रतिऽस्कुतम् । देवी इति । शुष्मम् । सपर्यतः । उभे इति । सुऽशिप्र । रोदसि इति ॥ ८.९३.१२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 12
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
And then, O lord of glorious countenance, both the divine earth and heaven honour and serve your irresistible might.
मराठी (1)
भावार्थ
मानवी मनाचे बल कुठेही पराजित होत नाही. सर्व प्राणी त्याच्यासमोर नतमस्तक असतात. ॥१२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अधा) पुनश्च (सुशिप्र) हे शुभ व्यावहारिक एवं पारमार्थिक सुखों के स्रोत मेरे मन! (उभे) दोनों (देवी) द्योतमान (रोदसी) द्यावा पृथिवी के मध्य वर्तमान प्राणी (ते) तेरे (अप्रतिष्कुत) विरोधी शक्तियों द्वारा अपराजित (शुष्मम्) शौर्य का (सपर्यतः) आदर करते हैं॥१२॥
भावार्थ
मानव मन का बल अपराजेय है--सभी प्राणी उसके समक्ष नतमस्तक हैं॥१२॥
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।
भावार्थ
(अध ) और हे ( सुशिप्र ) उत्तम बलशालिन् तेजस्विन् ! ( उभे रोदसी ) दोनों सूर्य पृथ्वीवत्, प्रबल निर्बल वा स्व, पर सेनाएं, ( देवी: ) विजयेच्छुक होकर भी ( ते ) तेरे ( अप्रतिष्कुतं ) अनुपम, ( शुष्मं ) बल की ( सपर्यंतः ) सेवा, आदर करती हैं। ( २ ) उस परमेश्वर के बल की यह आकाश और पृथिवी दोनों सेवा करती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
अप्रतिष्कुत शुष्म
पदार्थ
[१] हे (सुशिप्र) = शोभन हनु व नासिकावाले, हमारे लिये उत्तम जबड़ों व नासिका को प्राप्त करानेवाले प्रभो ! (अधा) = अब (ते) = आपके (अप्रतिष्कुतम्) = किन्हीं भी शत्रुओं से आक्रान्त न होने योग्य (शुष्मम्) = बल को (उभे) = दोनों (देवी) = दिव्य गुण सम्पन्न प्रकाशमय (रोदसी) = द्यावापृथिवी (सपर्यतः) = पूजित करते हैं। ये दोनों द्यावापृथिवी आपके अधीन होते हैं। [२] प्रभु ने हमें जबड़े भोजन को चबाने के लिये तथा नासिका छिद्र प्राणसाधना के लिये दिये हैं। खूब चबाया गया भोजन यदि पृथिवीरूप शरीर को दृढ़ करता है तो प्राणसाधना मस्तिष्क को ज्ञानदीप्त करती है। इस प्रकार द्यावापृथिवी में प्रभु के बल का प्रकाश होता है। तब शरीर रोगों से आक्रान्त नहीं होता और मस्तिष्क दुर्विचारों से अभिभूत नहीं होता ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ने जबड़े दिये हैं। इनके द्वारा खूब चवाकर खाया गया भोजन शरीर को दृढ़ बनाता है। प्रभु ने नासिका छिद्र प्राणसाधना के लिये दिये हैं, यह प्राणसाधना मस्तिष्क को ज्ञानदीप्त बनाती है। अब न रोग, न दुर्विचार हमारे पर आक्रमण करते हैं।
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