ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 23
इ॒ष्टा होत्रा॑ असृक्ष॒तेन्द्रं॑ वृ॒धासो॑ अध्व॒रे । अच्छा॑वभृ॒थमोज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ष्टाः । होत्राः॑ । अ॒सृ॒क्ष॒त॒ । इन्द्र॑म् । वृ॒धासः॑ । अ॒ध्व॒रे । अच्छ॑ । अ॒व॒ऽभृ॒थम् । ओज॑सा ॥
स्वर रहित मन्त्र
इष्टा होत्रा असृक्षतेन्द्रं वृधासो अध्वरे । अच्छावभृथमोजसा ॥
स्वर रहित पद पाठइष्टाः । होत्राः । असृक्षत । इन्द्रम् । वृधासः । अध्वरे । अच्छ । अवऽभृथम् । ओजसा ॥ ८.९३.२३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 23
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Cherished and lovely offers of havi offered into the fire in the yajna of life exalt Indra, and with light and lustre lead the yajamana to the sanctifying bath on the completion of the yajna.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वरनिर्मित द्रव्याने ऐश्वर्याची साधना करण्यासाठी त्याचा ज्ञान ग्रहणरूप यज्ञ, साधक आपल्या जीवनात करत आहे. त्यात त्याची इन्द्रियेच यजमान आहेत. जी आपापल्या आहुतीने आपल्या अधिष्ठात्या मनाच्या शक्तींना निरंतर वाढवून त्याला बलवान बनवितात व धैर्याने या यज्ञाला पूर्ण करतात. ॥२३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अध्वरे) जीवनयज्ञ में (इष्टाः) अभीष्ट की प्राप्ति हेतु आहुति प्रदाता (इन्द्र) मनःशक्ति को (वृधासः) बढ़ाते हुए (होत्राः) यजमान इन्द्रिय शक्तियाँ (ओजसा) अपनी ओजस्विता से (अवभृथम्) शोधक यज्ञान्त स्नान को (अच्छ) भली-भाँति (असृक्षत) रचकर पूरा करते हैं॥२३॥
भावार्थ
परमात्मा द्वारा रचित द्रव्यों से ऐश्वर्य की साधना हेतु उनका ज्ञान-ग्रहण रूप जो यज्ञसाधक स्वजीवन में रच रहा है उसमें उसकी इन्द्रियाँ ही यजमान हैं, जो स्व आहुतियों के द्वारा अपने अधिष्ठाता मन की शक्तियों को सतत बढ़ाकर उसे बलवान् बनाती हैं और धैर्यसहित इस यज्ञ को पूरा करती हैं॥२३॥
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।
भावार्थ
( ओजसा ) बल पराक्रम और शौर्य से (अव-भृथम् ) पूर्ण ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता पुरुष को ( अध्वरे ) हिंसारहित प्रजा पालन के कार्य में ( इष्टाः ) एकत्र संगत होकर ( होत्राः ) अधिकार देने वाले ( वृधासः ) उस के पद, बलादि के बढ़ाने वाले सहयोगी जन ही ( अच्छ ) सब के समक्ष ( असृक्षत ) इसे अपना प्रभु बनाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
अवभृथ की ओर
पदार्थ
[१] इस जीवन में 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्'-दो कान, दो नासिका छिद्र, दो आँखें व मुखरूप सात ऋषि [सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे] प्रभु द्वारा (इष्टा:) = यज्ञों के करनेवाले (होत्राः) = सात होता (असृक्षत) = उत्पन्न किये गये हैं। ये सात ऋषि ही यज्ञों को करनेवाले सात होता हैं [येन यज्ञस्तायते सप्त होता ] । इसलिए सद्गृहस्थ सदा यज्ञशील बनते हैं और अध्वरे यज्ञों में (इन्द्रं वृधास:) = उस प्रभु का वर्धन करनेवाले होते हैं। इन यज्ञों के द्वारा ही तो प्रभु की प्राप्ति होती है। [२] ये सद्गृहस्थ (ओजसा) = ओजषिता के साथ (अवभृथम्) = अच्छा यज्ञान्त-स्नान की ओर बढ़ते हैं। अर्थात् इनका जीवन यज्ञमय ही बना रहता है और ये सफलता के साथ इन यज्ञों के द्वारा उस प्रभु का पूजन कर पाते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम सब इन्द्रियों से यज्ञों को करते हुए प्रभु का अपने में वर्धन करें। हमारा जीवन यज्ञमय बना रहे।
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