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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 21
    ऋषिः - सुकक्षः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒भी षु ण॒स्त्वं र॒यिं म॑न्दसा॒नः स॑ह॒स्रिण॑म् । प्र॒य॒न्ता बो॑धि दा॒शुषे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । सु । नः॒ । त्वम् । र॒यिम् । म॒न्द॒सा॒नः । स॒ह॒स्रिण॑म् । प्र॒ऽय॒न्ता । बो॒धि॒ । दा॒शुषे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभी षु णस्त्वं रयिं मन्दसानः सहस्रिणम् । प्रयन्ता बोधि दाशुषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । सु । नः । त्वम् । रयिम् । मन्दसानः । सहस्रिणम् । प्रऽयन्ता । बोधि । दाशुषे ॥ ८.९३.२१

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 21
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord all joy and bliss, our guide, delighted with the soma yajna of the generous yajamana, enlighten him and bring him a thousandfold wealth, honour and excellence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर सुखस्वरूप आहे. त्याच्याकडेच सुखानी युक्त ऐश्वर्याची याचना करणे योग्य आहे. सुखस्वरूप परमेश्वराच्या गुणांचे अध्ययन करण्याने मार्गदर्शन मिळते व ही समज येते, की वास्तविक ऐश्वर्य कसे प्राप्त होते. ॥२१॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    हे परमेश्वर! (मन्दसानः) आनन्दमय (त्वम्) आप (नः अभि) हमारी ओर (सहस्रिणम्) हजारों सुखों से युक्त (रयिम्) ऐश्वर्य (सु) भलीभाँति प्रेरित करें। (प्रयन्ता) पथप्रदर्शक बने आप (दाशुषम्) आत्मसमर्पक भक्त को (बोधि) प्रबोध दे दें॥२१

    भावार्थ

    परमेश्वर सुखस्वरूप है--उनसे ही सुखयुक्त ऐश्वर्य की याचना उचित है। सुखस्वरूप प्रभु के गुणों का अध्ययन करने से मार्गदर्शन प्राप्य है और यह समझ प्राप्त होती है कि वास्तविक ऐश्वर्य कैसे मिलता है॥२१॥

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    विषय

    पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।

    भावार्थ

    ( त्वं नः ) तू हमें ( मन्दसानः ) अति हर्षित होकर ( सहस्त्रिणं रयिम् ) सहस्रों का धन ( अभि सु ) अच्छी प्रकार आदरपूर्वक ( प्रयन्ता ) प्रदान करने हारा हो और तू ( दाशुषे ) दानशील के हित को तू भी ( अभि सु बोधि ) अच्छी प्रकार जान।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    'दाश्वान् के पालक' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (मन्दसानः) = गत मन्त्र के अनुसार उपासक के प्रति प्रीतिवाले होते हुए (त्वम्) = आप (नः) = हम उपासकों के लिये (सु) = अच्छी प्रकार (सहस्रिणं रयिम्) = सहस्रों का भरण करनेवाले ऐश्वर्य को (अभि प्रयन्ता) = देनेवाले होइये। [२] हे प्रभो ! (दाशुषे) = दाश्वान्, दानशील पुरुष के लिये (बोधि) = अवश्य ऐश्वर्य प्रदान का ध्यान करिये।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का ध्यान करें। प्रभु हमें अवश्य ऐश्वर्यों को प्राप्त करायेंगे। हम दानशील बनेंगे, प्रभु अवश्य हमारा पालन करेंगे।

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