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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 15
    ऋषिः - सुकक्षः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    आदु॑ मे निव॒रो भु॑वद्वृत्र॒हादि॑ष्ट॒ पौंस्य॑म् । अजा॑तशत्रु॒रस्तृ॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आत् । ऊँ॒ इति॑ । मे॒ । नि॒ऽव॒रः । भु॒व॒त् । वृ॒त्र॒ऽहा । अ॒दि॒ष्ट॒ । पौंस्य॑म् । अजा॑तऽशत्रुः । अस्तृ॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदु मे निवरो भुवद्वृत्रहादिष्ट पौंस्यम् । अजातशत्रुरस्तृतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आत् । ऊँ इति । मे । निऽवरः । भुवत् । वृत्रऽहा । अदिष्ट । पौंस्यम् । अजातऽशत्रुः । अस्तृतः ॥ ८.९३.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Then Indra, the soul, the higher mind, my saviour, destroyer of evil, provides me strength, and, undaunted, I stir and become unchallengeable by enemies.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी बलवान मन:शक्ती स्वत: दुर्भावनांचा शिकार होत नाही, ती आपल्या सुमार्गाच्या सर्व विघ्नबाधांना नष्ट करत शरीराला बल प्रदान करते. ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उ) और (आत्) इसके उपरान्त (मे) मेरा (अजातशत्रुः) शत्रुत्वभावना जिसमें कभी उत्पन्न नहीं होती--सर्व सखा (अस्तृतः) बलवान् होने के कारण अहिंसित मन (निवरः) कुटिलताओं को दूर करने वाला; (वृत्रहा) बाधाओं का हर्ता (भुवत्) हो जाता है और (पौंस्यम्) बल (आदिष्ट) देता है॥१५॥

    भावार्थ

    जो शक्तिशाली मनःशक्ति स्वयं दुर्भावनाओं का आहार नहीं बनती वह अपने सुमार्ग की सब विघ्नबाधाओं को नष्ट कर शरीरादि को बल देती है॥१५॥

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    विषय

    पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।

    भावार्थ

    ( आत् उ ) अनन्तर ही वह ( मे निवरः ) मुझ प्रजागण के समस्त कष्टों का निवारण करने वाला, ( भुवत् ) होता है। वह ( वृत्रहा ) दुष्टों का नाशक वीर, मेघों के छेदक भेदक विद्युत् वा सूर्य के समान ( पौंस्यम् अदिष्ट ) बल पराक्रम को करता है। ( अजात शत्रुः अस्तृतः ) तब उस का कोई शत्रु नहीं रहता और फिर वह विनष्ट नहीं होता। (२) प्रभु परमेश्वर सब कष्टों का निवारक, दुष्टनाशक है, वह हमें बल दे। उस का कोई शत्रु नहीं, वह अविनाशी है। इति त्रयोविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥

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    विषय

    निवरः [प्रभु]

    पदार्थ

    [१] (आद् उ) = अब शीघ्र (ही) = निश्चय से प्रभु (मे) = मेरे लिये (निवर:) = शत्रुओं का निवारण करनेवाले (भुवत्) = होते हैं। और हे (वृत्रहा) = वासनारूप शत्रु का नाश करनेवाले प्रभु (पौंस्यम्) = बल को (अदिष्ट) = मेरे लिये देते हैं। [२] ये प्रभु (अजातशत्रुः) = अजातशत्रु हैं। प्रभु का कोई भी शासन करनेवाला नहीं हो सकता। (अस्तृतः) = प्रभु किसी से हिंसित नहीं होते। प्रभु का उपासक भी अजातशत्रु व अहिंसित बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे शत्रुओं का निवारण करते हैं और वासना विनाश द्वारा हमारे में बल का स्थापन करते हैं। वे कभी किसी से हिंसित नहीं किये जा सकते।

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