ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 93/ मन्त्र 32
द्वि॒ता यो वृ॑त्र॒हन्त॑मो वि॒द इन्द्र॑: श॒तक्र॑तुः । उप॑ नो॒ हरि॑भिः सु॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठद्वि॒ता । यः । वृ॒त्र॒हन्ऽत॑मः । वि॒दे । इन्द्रः॑ । श॒तऽक्र॑तुः । उप॑ । नः॒ । हरि॑ऽभिः । सु॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्विता यो वृत्रहन्तमो विद इन्द्र: शतक्रतुः । उप नो हरिभिः सुतम् ॥
स्वर रहित पद पाठद्विता । यः । वृत्रहन्ऽतमः । विदे । इन्द्रः । शतऽक्रतुः । उप । नः । हरिऽभिः । सुतम् ॥ ८.९३.३२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 93; मन्त्र » 32
अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, hero of a hundred noble actions, greatest destroyer of darkness who know both the way of knowledge and the way of karma for the good life, come to taste our soma of homage prepared by us with our heart and soul for you.
मराठी (1)
भावार्थ
परम प्रभू परमेश्वर विघ्ननाशक व विविध कर्मकर्ता आहेच; परंतु माझा आत्माही इन्द्रियांद्वारे निष्पादित ज्ञानरस व दिव्य आनंदाचा आनंद घेऊन दोन्ही प्रकारच्या शक्तींनी संपन्न होऊ शकतो. ॥३२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यः) जो यह (इन्द्रः) समर्थ, ऐश्वर्ययुक्त हमारा आत्मा (वृत्रहन्तमः) अपनी ज्ञानशक्ति से आवरक अज्ञान का अतिशय विनाशक एवं कर्म शक्ति के द्वारा (शतक्रतो) विविध कर्मों का कर्ता--इस प्रकार (द्विधा)--दो रूपों से--दो प्रकार से (विदेः) जाना गया है--दो प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न, मेरे आत्मा! तू [इन्द्रियों द्वारा] निष्पादित ज्ञानरस को (उप याहि) पा॥३२॥
भावार्थ
परमेश्वर तो विघ्न विनाशक एवं विविध कर्मकर्ता हैं ही, मेरा आत्मा भी इन्द्रियों के द्वारा निष्पादित ज्ञानरस व दिव्यानन्द का आनन्द ले दोनों प्रकार की शक्तियों से युक्त हो सकता है॥३२॥
विषय
पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण वर्णन।
भावार्थ
( यः ) जो ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता राजा ( वृत्र-हन्तमः ) दुष्ट पुरुषों को अति अधिक दण्ड देने और विनाश करने हारा, और ( शत-क्रतुः ) अपरिमित बलशाली इस प्रकार ( द्विता ) दो प्रकार का जाना जाता है, वह ( हरिभिः ) विद्वान् पुरुषों और अश्वादि सैन्य गणों सहित ( नः सुतम् ) हमारे ऐश्वर्ययुक्त राष्ट्र को ( उप ) प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुकक्ष ऋषिः॥ १—३३ इन्द्रः। ३४ इन्द्र ऋभवश्च देवताः॥ छन्दः—१, २४, ३३ विराड़ गायत्री। २—४, १०, ११, १३, १५, १६, १८, २१, २३, २७—३१ निचृद् गायत्री। ५—९, १२, १४, १७, २०, २२, २५, २६, ३२, ३४ गायत्री। १९ पादनिचृद् गायत्री॥
विषय
शतक्रतु
पदार्थ
[१] (द्विता) = [द्वौ तनोति] शक्ति व ज्ञान के विस्तार के द्वारा (यः) = जो (वृत्रहन्तमः) = वासनाओं का अधिक से अधिक विनाश करनेवाला है, वह (इन्द्रः) = परमैश्वर्यवाला प्रभु (शतक्रतुः) = अनन्त प्रज्ञान व शक्तिवाला (विदे) = जाना जाता है। [२] यह प्रभु (नः) = हमें (हरिभिः) = इन्द्रियों के होने से (सुतम्) = शरीर में उत्पन्न सोम को (उप) = समीपता से प्राप्त कराये। इस सुरक्षित सोम ने ही तो इन्द्रियों को शक्ति सम्पन्न बनाना है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु शक्ति व ज्ञान के विस्तार के द्वारा हमारी वासनाओं का विनाश करते हमें भी सोमरक्षण द्वारा अपने समान 'शतक्रतु' बनाते हैं।
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