अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
सूक्त - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
केनापो॒ अन्व॑तनुत॒ केना॑हरकरोद्रु॒चे। उ॒षसं॒ केनान्वै॑न्द्ध॒ केन॑ सायंभ॒वं द॑दे ॥
स्वर सहित पद पाठकेन॑ । आप॑: । अनु॑ । अ॒त॒नु॒त॒ । केन॑ । अह॑: । अ॒क॒रो॒त् । रु॒चे । उ॒षस॑म् । केन॑ । अनु॑ । ऐ॒न्ध्द॒ । केन॑ । सा॒य॒म्ऽभ॒वम् । द॒दे॒ ॥२.१६॥
स्वर रहित मन्त्र
केनापो अन्वतनुत केनाहरकरोद्रुचे। उषसं केनान्वैन्द्ध केन सायंभवं ददे ॥
स्वर रहित पद पाठकेन । आप: । अनु । अतनुत । केन । अह: । अकरोत् । रुचे । उषसम् । केन । अनु । ऐन्ध्द । केन । सायम्ऽभवम् । ददे ॥२.१६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 16
भाषार्थ -
(केन) किस कारण (आपः) सामुद्रिक जलों को (अनु अतनुत) लगातार फैलाया है, (केन) किस कारण (रुचे) दीप्ति के लिये (अहः) दिन को (अकरोत्) रचा है। (केन) किस कारण (उषसम्) उषा को (अनु ऐन्द्ध) लगातार प्रदीप्त किया है, (केन) किस कारण (सायंभवम्) सायं काल का होना (ददे) प्रदान किया है।
टिप्पणी -
[मन्त्र के द्वितीय पाद में दिन की रचना का कारण कह दिया है कि “रुचे” दीप्ति के लिये। इसी प्रकार अवशिष्ट रचनाओं के प्रयोजनों का ऊहापोह स्वयं करना चाहिये। सम्भवतः सामुद्रिक जलों को फैलाया है सामुद्रिक जीवों के जीवनार्थ तथा वर्षा के लिये उषा तथा सायंकाल हैं, दोनों कालों में ध्यान या सन्ध्या के लिये। केन= केन हेतुना, कारणेन। अथवा “दीप्ति के लिये दिन को रचा है" ताकि प्राणी काम कर सकें]।