अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 27
सूक्त - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
तद्वा अथ॑र्वणः॒ शिरो॑ देवको॒शः समु॑ब्जितः। तत्प्रा॒णो अ॒भि र॑क्षति॒ शिरो॒ अन्न॒मथो॒ मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । वै । अथ॑र्वण: । शिर॑: । दे॒व॒ऽको॒श: । सम्ऽउ॑ब्जित: । तत् । प्रा॒ण: । अ॒भि । र॒क्ष॒ति॒ । शिर॑: । अन्न॑म् । अथो॒ इति॑ । मन॑: ॥२.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
तद्वा अथर्वणः शिरो देवकोशः समुब्जितः। तत्प्राणो अभि रक्षति शिरो अन्नमथो मनः ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । वै । अथर्वण: । शिर: । देवऽकोश: । सम्ऽउब्जित: । तत् । प्राण: । अभि । रक्षति । शिर: । अन्नम् । अथो इति । मन: ॥२.२७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 27
भाषार्थ -
(वै) निश्चय से (तत्) वह (शिरः) सिर अर्थात् मस्तिष्क (अथर्वणः) अचल, कूटस्थ परमेश्वर का है, (देवकोशः) इन्द्रियों का खजाना है, (समुब्जितः) सिर की खोपड़ी में रखा हुआ है। (तत्) उस (शिर) सिर अर्थात् मस्तिष्क की (अभि रक्षति) रक्षा करता है (प्राणाः) प्राण (अन्नम) अन्न (अथो) और (मनः) मन।
टिप्पणी -
[मस्तिष्क में स्थित सहस्रारचक्र में, परमेश्वर का स्पष्ट साक्षात्कार होता है, अतः मस्तिष्क को अथर्वा कहा है। मस्तिष्क में ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के घर हैं, अतः यह देवकोश है। खोपड़ी रूपी कोश के भीतर यह देवकोश रहता है, इसलिये इसे समुब्जितः कहा है, यथा "कोशे कोशः समुब्जितः" (अथर्व० ९।३।२०)। मस्तिष्क बहुमूल्यवान रत्न है, रत्नों को कोश अर्थात् पेटी में रख कर, पेटी को कमरे रूपी कोश में रखा जाता है। मस्तिष्क की रक्षा होती है प्राणायाम द्वारा, सात्विक अन्न द्वारा, तथा मनन अर्थात् विचार द्वारा अथवा प्राणमयकोश द्वारा, अन्नमयकोश द्वारा तथा मनोमयकोश द्वारा]।