अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 2/ मन्त्र 26
सूक्त - नारायणः
देवता - ब्रह्मप्रकाशनम्, पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मप्रकाशन सूक्त
मू॒र्धान॑मस्य सं॒सीव्याथ॑र्वा॒ हृद॑यं च॒ यत्। म॒स्तिष्का॑दू॒र्ध्वः प्रैर॑य॒त्पव॑मा॒नोऽधि॑ शीर्ष॒तः ॥
स्वर सहित पद पाठमू॒र्धान॑म् । अ॒स्य॒ । स॒म्ऽसीव्य॑ । अथ॑र्वा । हृद॑यम् । च॒ । यत् । म॒स्तिष्का॑त् । ऊ॒र्ध्व: । प्र । ऐ॒र॒य॒त् । पव॑मान: । अधि॑ । शी॒र्ष॒त: ॥२.२६।
स्वर रहित मन्त्र
मूर्धानमस्य संसीव्याथर्वा हृदयं च यत्। मस्तिष्कादूर्ध्वः प्रैरयत्पवमानोऽधि शीर्षतः ॥
स्वर रहित पद पाठमूर्धानम् । अस्य । सम्ऽसीव्य । अथर्वा । हृदयम् । च । यत् । मस्तिष्कात् । ऊर्ध्व: । प्र । ऐरयत् । पवमान: । अधि । शीर्षत: ॥२.२६।
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 2; मन्त्र » 26
भाषार्थ -
(अस्य) इस मानुष पुरुष के (मूर्धानम्) मूर्धा को, (च) और (यत्) जो (हृदयम्) हृदय है उसे (संसीव्य) परस्पर में सीकर, जोड़ कर, (पवमानः) पवित्र करने वाले, (ऊर्ध्वः) सांसारिक लेपों से उपर उठे हुए, (अथर्वा) अचल, कूटस्थ परमेश्वर१ ने (शीर्षतः अधि) सिर में स्थित (मस्तिष्कात्) मस्तिष्क से (प्रैरयत्) शरीर में प्रेरणाएं दी हैं।
टिप्पणी -
[परमेश्वर ने मूर्धा ओर हृदय को परस्पर जोड़ा है। इस का अभिप्राय यह है कि विचारों और भावनाओं में परस्पर समन्वय और सामञ्जस्य होना चाहिये। परमेश्वर "ऊर्ध्वः" है। यथा "त्रिपाद्दूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः" (त० ३१।४)। शीर्षतः=सप्तम्यर्थे तसिल्, तसिल् सार्वविभक्तिकः।] [१. मन्त्र में "अथर्वा" पद परमेश्वरार्थक प्रतीत होता है। अथर्ववेद में जितना विस्तृत और स्पष्ट वर्णन परमेश्वर का है उतना अन्य किसी वेद में नहीं मिलता। सम्भवतः अथर्वा के वर्णन के कारण इस वेद का नाम "अथर्ववेद" हो।]