यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 14
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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यद्दे॑वा देव॒हेड॑नं॒ देवा॑सश्चकृ॒मा व॒यम्। अ॒ग्निर्मा॒ तस्मा॒देन॑सो॒ विश्वा॑न्मुञ्च॒त्वꣳह॑सः॥१४॥
स्वर सहित पद पाठयत्। दे॒वाः॒। दे॒व॒हेड॑न॒मिति॑ देव॒ऽहेड॑नम्। देवा॑सः। च॒कृ॒म। व॒यम्। अ॒ग्निः। मा॒। तस्मा॑त्। एन॑सः। विश्वा॑त्। मु॒ञ्च॒तु॒। अꣳह॑सः ॥१४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्देवा देवहेडनन्देवासश्चकृमा वयम् । अग्निर्मा तस्मादेनसो विश्वान्मुञ्चत्वँहसः ॥
स्वर रहित पद पाठ
यत्। देवाः। देवहेडनमिति देवऽहेडनम्। देवासः। चकृम। वयम्। अग्रिः। मा। तस्मात्। एनसः। विश्वात्। मुञ्चतु। अꣳहसः॥१४॥
विषय - फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ -
हे विद्वान्! (यत्) जो (वयम्) हम (देवाः) अध्यापक और उपदेशक, विद्वान् तथा अन्य (देवासः) विद्वान् लोग परस्पर (देवहेडनम्) विद्वानों का अनादर (चकृम) करें, (तस्मात्) उस (विश्वात्) समस्त (एनसः) अपराध और (अंहसः) दुष्ट व्यसन से (अग्निः) पावक के समान सब विद्याओं में प्रकाशमान आप (मा) मुझको (मुञ्चतु) पृथक् करो॥१४॥
भावार्थ - जो कभी अकस्मात् भ्रान्ति से किसी विद्वान् का अनादर कोई करे तो उसी समय क्षमा करावे। जैसे अग्नि सब पदार्थों में प्रविष्ट हुआ सब को अपने स्वरूप में स्थिर करता है, वैसे विद्वान् को चाहिये कि सत्य के उपदेश से असत्याचरण से पृथक् और सत्याचार में प्रवृत्त करके सब को धार्मिक करें॥१४॥
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