Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 18
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - वरुणो देवता छन्दः - भुरिगत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः
    8

    यदापो॑ऽअ॒घ्न्या इति॒ वरु॒णेति॒ शपा॑महे॒ ततो॑ वरुण नो मुञ्च। अव॑भृथ निचुम्पुण निचे॒रुर॑सि निचुम्पु॒णः। अव॑ दे॒वैर्दे॒वकृ॑त॒मेनो॑ऽय॒क्ष्यव॒ मर्त्यै॒र्मर्त्य॑कृतं पुरु॒राव्णो॑ देव रि॒षस्पा॑हि॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। आपः॑। अ॒घ्न्याः। इति॑। वरु॑ण। इति॑। शपा॑महे। ततः॑। व॒रु॒ण॒। नः॒। मु॒ञ्च॒। अव॑भृ॒थेत्यव॑ऽभृथ। नि॒चि॒म्पु॒णेति॑ निऽचुम्पुण। नि॒चे॒रुरिति॑ निऽचे॒रुः। अ॒सि॒। नि॒चि॒म्पु॒ण इति॑ निऽचुम्पु॒णः। अव॑। दे॒वैः। दे॒वकृ॑त॒मिति॑ दे॒वऽकृ॑तम्। एनः॑। अ॒य॒क्षि॒। अव॑। मर्त्यैः॑। मर्त्य॑कृत॒मिति॒ मर्त्य॑ऽकृतम्। पु॒रु॒राव्ण॒ इति॑ पुरु॒ऽराव्णः॑। दे॒व॒। रि॒षः। पा॒हि॒ ॥१८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदापोऽअघ्न्याऽइति वरुणेति शपामहे ततो वरुण नो मुञ्च । अवभृथ निचुम्पुण निचेरुरसि निचुम्पुणः । अव देवैर्देवकृतमेनो यक्ष्यव मर्त्यैर्मर्त्यकृतम्पुरुराव्णो देव रिषस्पाहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। आपः। अघ्न्याः। इति। वरुण। इति। शपामहे। ततः। वरुण। नः। मुञ्च। अवभृथेत्यवऽभृथ। निचिम्पुणेति निऽचुम्पुण। निचेरुरिति निऽचेरुः। असि। निचिम्पुण इति निऽचुम्पुणः। अव। देवैः। देवकृतमिति देवऽकृतम्। एनः। अयक्षि। अव। मर्त्यैः। मर्त्यकृतमिति मर्त्यऽकृतम्। पुरुराव्ण इति पुरुऽराव्णः। देव। रिषः। पाहि॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 18
    Acknowledgment

    पदार्थ -
    हे (वरुण) उत्तम प्राप्ति कराने और (देव) दिव्य बोध का देनेहारा तू (यत्) जो (आपः) प्राण (अघ्न्याः) मारने को अयोग्य गौवें (इति) इस प्रकार से वा हे (वरुण) सर्वोत्कृष्ट! (इति) इस प्रकार से हम लोग (शपामहे) उलाहना देते हैं, (ततः) उस अविद्यादि क्लेश और अधर्माचरण से (नः) हम को (मुञ्च) अलग कर। हे (अवभृथ) ब्रह्मचर्य और विद्या से निष्णात (निचुम्पुण) मन्द गमन करनेहारे! तू (निचेरुः) निश्चित आनन्द का देनेहारा और (निचुम्पुणः) निश्चित आनन्दयुक्त (असि) है, इस हेतु से (पुरुराव्णः) बहु दुःख देनेहारी (रिषः) हिंसा से (पाहि) रक्षा कर, (देवकृतम्) जो विद्वानों का किया (एनः) अपराध है, उसको (देवैः) विद्वानों के साथ (अवायक्षि) नाश करता है, जो (मर्त्यकृतम्) मनुष्यों का किया अपराध है, उसको (मर्त्यैः) मनुष्यों के साथ से (अव) छुड़ा देता है॥१८॥

    भावार्थ - अध्यापक और उपदेशक मनुष्यों को शिष्यजन ऐसे सत्यवादी सिद्ध करने चाहियें कि जो इन को कहीं शपथ करना न पड़े। जो-जो मनुष्यों को श्रेष्ठ कर्म का आचरण करना हो, वह-वह सबको आचरण करना चाहिये और जो अधर्मरूप हो, वह किसी को कभी न करना चाहिये॥१८॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top