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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 38
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    ई॒डि॒तो दे॒वैर्हरि॑वाँ२ऽअभि॒ष्टिरा॒जुह्वा॑नो ह॒विषा॒ शर्द्ध॑मानः। पु॒र॒न्द॒रो गो॑त्र॒भिद् ्वज्र॑बाहु॒राया॑तु य॒ज्ञमुप॑ नो जुषा॒णः॥३८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ई॒डि॒तः। दे॒वैः। हरि॑वा॒निति॒ हरि॑ऽवान्। अ॒भि॒ष्टिः। आ॒जुह्वा॑न॒ इत्या॒ऽजुह्वा॑नः। ह॒विषा॑। शर्द्ध॑मानः। पु॒र॒न्द॒र इति॑ पुरम्ऽद॒रः। गो॒त्र॒भिदिति॑ गोत्र॒ऽभित्। वज्र॑बाहु॒रिति॒ वज्र॑ऽबाहुः। आ। या॒तु॒। य॒ज्ञम्। उप॑। नः॒। जु॒षा॒णः ॥३८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ईडितो देवैर्हरिवाँऽअभिष्टिराजुह्वानो हविषा शर्धमानः । पुरन्दरो गोतभिद्वज्रबाहुरा यातु यज्ञमुप नो जुषाणः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ईडितः। देवैः। हरिवानिति हरिऽवान्। अभिष्टिः। आजुह्वान इत्याऽजुह्वानः। हविषा। शर्द्धमानः। पुरन्दर इति पुरम्ऽदरः। गोत्रभिदिति गोत्रऽभित्। वज्रबाहुरिति वज्रऽबाहुः। आ। यातु। यज्ञम्। उप। नः। जुषाणः॥३८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 38
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    पदार्थ -
    हे विद्वन्! आप जैसे (हरिवान्) उत्तम घोड़ों वाला (वज्रबाहुः) जिसकी भुजाओं में वज्र विद्यमान (पुरन्दरः) जो शत्रुओं के नगरों का विदीर्ण करनेहारा सेनापति (गोत्रभित्) मेघ को विदीर्ण करनेहारा सूर्य जैसे रसों का सेवन करे, वैसे अपनी सेना का सेवन करता है, वैसे (देवैः) विद्वनों से (ईडितः) प्रशंसित (अभिष्टिः) सब ओर से यज्ञ के करनेहारे (आजुह्वानः) विद्वानों ने सत्कारपूर्वक बुलाये हुए (हविषा) सद्विद्या के दान और ग्रहण से (शर्द्धमानः) सहन करते और (जुषाणः) प्रसन्न होते हुए आप (नः) हमारे (यज्ञम्) यज्ञ को (उप, आ, यातु) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये॥३८॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सेनापति सेना को और सूर्य मेघ को बढ़ाकर सब जगत् की रक्षा करता है, वैसे धार्मिक अध्यापकों को अध्ययन करनेहारों के साथ पढ़ना और पढ़ाना कर, विद्या से सब प्राणियों की रक्षा करनी चाहिये॥३८॥

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