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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 44
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः देवता - त्वष्टा देवता छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    त्वष्टा॒ दध॒च्छुष्म॒मिन्द्रा॑य॒ वृष्णे॑ऽपा॒कोऽचि॑ष्टुर्य॒शसे॑ पु॒रूणि॑। वृषा॒ यज॒न्वृष॑णं॒ भूरि॑रेता मू॒र्द्धन् य॒ज्ञस्य॒ सम॑नक्तु॒ दे॒वान्॥४४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वष्टा॑। दध॑त्। शुष्म॑म्। इन्द्रा॑य। वृष्णे॑। अपा॑कः। अचि॑ष्टुः। य॒शसे॑। पु॒रूणि॑। वृषा॑। यज॑न्। वृष॑णम्। भूरि॑रेता॒ इति॒ भूरि॑ऽरेताः। मू॒र्द्धन्। य॒ज्ञस्य॑। सम्। अ॒न॒क्तु॒। दे॒वान् ॥४४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वष्टा दधच्छुष्ममिन्द्राय वृष्णेपाकोचिष्टुर्यशसे पुरूणि । वृषा यजन्वृषणम्भूरिरेता मूर्धन्यज्ञस्य समनक्तु देवान् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वष्टा। दधत्। शुष्मम्। इन्द्राय। वृष्णे। अपाकः। अचिष्टुः। यशसे। पुरूणि। वृषा। यजन्। वृषणम्। भूरिरेता इति भूरिऽरेताः। मूर्द्धन्। यज्ञस्य। सम्। अनक्तु। देवान्॥४४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 44
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    पदार्थ -
    हे विद्वन्! जैसे (त्वष्टा) विद्युत् के समान वर्त्तमान विद्वान् (वृषा) सेचनकर्त्ता (इन्द्राय) परमैश्वर्य और (वृष्णे) पराये सामर्थ्य को रोकनेहारे के लिये (शुष्मम्) बल को (अपाकः) अप्रशंसनीय (अचिष्टुः) प्राप्त होनेहारा (यशसे) कीर्ति के लिये (पुरूणि) बहुत पदार्थों को (दधत्) धारण करते हुए (भूरिरेताः) अत्यन्त पराक्रमी (वृषणम्) मेघ को (यजन्) संगत करता हुआ (यज्ञस्य) संगति से उत्पन्न हुए जगत् के (मूर्द्धन्) उत्तम भाग में (देवान्) विद्वानों की (समनक्तु) कामना करे, वैसे तू भी कर॥४४॥

    भावार्थ - जब तक मनुष्य शुद्धान्तःकरण नहीं होवे, तब तक विद्वानों का संग, सत्यशास्त्र और प्राणायाम का अभ्यास किया करे, जिससे शीघ्र शुद्धान्तःकरणवान् हो॥४४॥

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