Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 66
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    5

    गोभि॒र्न सोम॑मश्विना॒ मास॑रेण परि॒स्रुता॑।सम॑धात॒ꣳ सर॑स्वत्या॒ स्वाहेन्द्रे॑ सु॒तं मधु॑॥६६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गोभिः॑। न। सोम॑म्। अ॒श्वि॒ना॒। मास॑रेण। प॒रि॒स्रुतेति॑ परि॒ऽस्रुता॑। सम्। अ॒धा॒त॒म्। सर॑स्वत्या। स्वाहा॑। इन्द्रे॑। सु॒तम्। मधु॑ ॥६६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गोभिर्न सोममश्विना मासरेण परिस्रुता । समधातँ सरस्वत्या स्वाहेन्द्रे सुतम्मधु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    गोभिः। न। सोमम्। अश्विना। मासरेण। परिस्रुतेति परिऽस्रुता। सम्। अधातम्। सरस्वत्या। स्वाहा। इन्द्रे। सुतम्। मधु॥६६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 66
    Acknowledgment

    पदार्थ -
    हे (अश्विना) अच्छी शिक्षा पाये हुए वैद्यो! (मासरेण) प्रमाण युक्त मांड (परिस्रुता) सब ओर से मधुर आदि रस से युक्त (सरस्वत्या) अच्छी शिक्षा और ज्ञान से युक्त वाणी से और (स्वाहा) सत्यक्रिया से तथा (इन्द्रे) परमैश्वर्य्य के होते (गोभिः) गौओं से दुग्ध आदि पदार्थों को जैसे (न) वैसे (मधु) मधुर आदि गुणों से युक्त (सुतम्) सिद्ध किये (सोमम्) ओषधियों के रस को तुम (समधातम्) अच्छे प्रकार धारण करो॥६६॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। वैद्य लोग उत्तम हस्तक्रिया से सब ओषधियों के रस को ग्रहण करें॥६६॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top