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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 25
    ऋषिः - अश्वतराश्विर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    21

    यत्र॒ ब्रह्म॑ च क्ष॒त्रं च॑ स॒म्यञ्चौ॒ चर॑तः स॒ह।तं लो॒कं पुण्यं॒ प्रज्ञे॑षं॒ यत्र॑ दे॒वाः स॒हाग्निना॑॥२५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑। ब्रह्म॑। च॒। क्ष॒त्रम्। च॒। स॒म्यञ्चौ॑। चर॑तः। स॒ह। तम्। लो॒कम्। पुण्य॑म्। प्र। ज्ञे॒ष॒म्। यत्र॑। दे॒वाः। स॒ह। अ॒ग्निना॑ ॥२५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्र ब्रह्म च क्षत्रञ्च सम्यञ्चो चरतः सह । तँलोकम्पुण्यम्प्र ज्ञेषँयत्र देवाः सहाग्निना ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र। ब्रह्म। च। क्षत्रम्। च। सम्यञ्चौ। चरतः। सह। तम्। लोकम्। पुण्यम्। प्र। ज्ञेषम्। यत्र। देवाः। सह। अग्निना॥२५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 25
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जैसे मैं (यत्र) जिस परमात्मा में (ब्रह्म) ब्राह्मण अर्थात् विद्वानों का कुल (च) और (क्षत्रम्) विद्या, शौर्यादि गुणयुक्त क्षत्रियकुल ये दोनों (सह) साथ (सम्यञ्चौ) अच्छे प्रकार प्रीतियुक्त (च) तथा वैश्य आदि के कुल (चरतः) मिलकर व्यवहार करते हैं और (यत्र) जिस ब्रह्म में (देवाः) दिव्यगुण वाले पृथिव्यादि लोक वा विद्वान् जन (अग्निना) बिजुली रूप अग्नि के (सह) साथ वर्तते हैं, (तम्) उस (लोकम्) देखने के योग्य (पुण्यम्) सुखस्वरूप निष्पाप परमात्मा को (प्र, ज्ञेषम्) जानूं, वैसे तुम लोग भी इस को जानो॥२५॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो ब्रह्म एक चेतनमात्र स्वरूप, सब का अधिकारी, पापरहित, ज्ञान से देखने योग्य, सर्वत्र व्याप्त, सब के साथ वर्त्तमान है, वही सब मनुष्यों का उपास्य देव है॥२५॥

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