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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 60
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    क॒व॒ष्यो न व्यच॑स्वतीर॒श्विभ्यां॒ न दुरो॒ दिशः॑।इन्द्रो॒ न रोद॑सीऽउ॒भे दु॒हे कामा॒न्त्सर॑स्वती॥६०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒व॒ष्यः᳕। न। व्यच॑स्वतीः। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। न। दुरः॑। दिशः॑। इन्द्रः॑। न। रोद॑सी॒ऽइति॒ रोद॑सी। उ॒भेऽइत्यु॒भे। दु॒हे। कामा॑न्। सर॑स्वती ॥६० ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कवष्यो न व्यचस्वतीरश्विभ्यान्न दुरो दिशः । इन्द्रो न रोदसी उभे दुहे कामान्त्सरस्वती॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कवष्यः। न। व्यचस्वतीः। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। न। दुरः। दिशः। इन्द्रः। न। रोदसीऽइति रोदसी। उभेऽइत्युभे। दुहे। कामान्। सरस्वती॥६०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 60
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    पदार्थ -
    (सरस्वती) अतिश्रेष्ठ ज्ञानवती मैं (इन्द्रः) बिजुली (अश्विभ्याम्) सूर्य और चन्द्रमा से (व्यचस्वतीः) व्याप्त होने वाली (कवष्यः) अत्यन्त प्रशंसित (दिशः) दिशाओं को (न) जैसे तथा (दुरः) द्वारों को (न) जैसे वा (उभे) दोनों (रोदसी) आकाश और पृथिवी को जैसे (न) वैसे (कामान्) कामनाओं को (दुहे) पूर्ण करती हूं॥६०॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे बिजुली सूर्य-चन्द्रमा से दिशाओं के और द्वारों के अन्धकार का नाश करती है वा जैसे पृथिवी और प्रकाश को धारण करती है, वैसे पण्डिता स्त्री पुरुषार्थ से अपनी इच्छा पूर्ण करे॥६०॥

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