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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 39
    ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - निचृत त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    जु॒षा॒णो ब॒र्हिर्हरि॑वान्न॒ऽइन्द्रः॑ प्रा॒चीन॑ꣳ सीदत् प्र॒दिशा॑ पृथि॒व्याः। उ॒रु॒प्रथाः॒ प्रथ॑मानꣳ स्यो॒नमा॑दि॒त्यैर॒क्तं वसु॑भिः स॒जोषाः॑॥३९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जु॒षा॒णः। ब॒र्हिः। हरि॑वा॒निति॒ हरि॑ऽवान्। नः॒। इन्द्रः॑। प्रा॒चीन॑म्। सी॒द॒त्। प्र॒दिशेति॑ प्र॒ऽदिशा॑। पृ॒थि॒व्याः। उ॒रु॒प्रथा॒ इत्यु॑रु॒ऽप्रथाः॑। प्रथ॑मानम्। स्यो॒नम्। आ॒दि॒त्यैः। अ॒क्तम्। वसु॑भि॒रिति॒ वसु॑ऽभिः। स॒जोषा॒ इति॑ स॒ऽजोषाः॑ ॥३९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जुषाणो बर्हिर्हरिवान्नऽइन्द्रः प्राचीनँ सीदत्प्रदिशा पृथिव्याः । उरुप्रथाः प्रथमानँ स्योनमादित्यैरक्तँवसुभिः सजोषाः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    जुषाणः। बर्हिः। हरिवानिति हरिऽवान्। नः। इन्द्रः। प्राचीनम्। सीदत्। प्रदिशेति प्रऽदिशा। पृथिव्याः। उरुप्रथा इत्युरुऽप्रथाः। प्रथमानम्। स्योनम्। आदित्यैः। अक्तम्। वसुभिरिति वसुऽभिः। सजोषा इति सऽजोषाः॥३९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 39
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    पदार्थ -
    हे विद्वन्! जैसे (बर्हिः) अन्तरिक्ष को (जुषाणः) सेवन करता हुआ (हरिवान्) जिस के हरणशील बहुत किरणें विद्यमान (उरुप्रथाः) बहुत विस्तार युक्त (आदित्यैः) महीनों और (वसुभिः) पृथिव्यादि लोकों के (सजोषाः) साथ वर्त्तमान (इन्द्रः) जलों का धारणकर्त्ता सूर्य्य (पृथिव्याः) पृथिवी से (प्रदिशा) उपदिशा के साथ (प्रथमानम्) विस्तीर्ण (अक्तम्) प्रसिद्ध (प्राचीनम्) पुरातन (स्योनम्) सुखकारक स्थान को (सीदत्) स्थित होता है, वैसे तू (नः) हमारे मध्य में हो॥३९॥

    भावार्थ - मनुष्यों को योग्य है कि रात-दिन प्रयत्न से आदित्य के तुल्य अविद्यारूपी अन्धकार का निवारण करके जगत् में बड़ा सुख प्राप्त करें। जैसे पृथिवी से सूर्य बड़ा है, वैसे अविद्वानों में विद्वान् को बड़ा जानें॥३९॥

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