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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 31
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    अध्व॑र्यो॒ऽअद्रि॑भिः सु॒तꣳ सोमं॑ प॒वित्र॒ऽआ न॑य। पु॒ना॒हीन्द्रा॑य॒ पात॑वे॥३१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध्व॑र्यो॒ऽइत्यध्व॑र्यो। अद्रि॑भि॒रित्यद्रि॑ऽभिः। सु॒तम्। सोम॑म्। प॒वित्रे॑। आ। न॒य॒। पु॒नी॒हि। इन्द्रा॑य। पात॑वे ॥३१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध्वर्या अद्रिभिः सुतँ सोमम्पवित्रऽआनय । पुनीहीन्द्राय पातवे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अध्वर्योऽइत्यध्वर्यो। अद्रिभिरित्यद्रिऽभिः। सुतम्। सोमम्। पवित्रे। आ। नय। पुनीहि। इन्द्राय। पातवे॥३१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 31
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    पदार्थ -
    हे (अध्वर्यो) यज्ञ को युक्त करनेहारे पुरुष! तू (इन्द्राय) परमैश्वर्यवान् के लिये (पातवे) पीने को (अद्रिभिः) मेघों से (सुतम्) उत्पन्न हुए (सोमम्) सोमवल्ल्यादि ओषधियों के साररूप रस को (पवित्रे) शुद्ध व्यवहार में (आनय) ले आ, उससे तू (पुनीहि) पवित्र हो॥३१॥

    भावार्थ - वैद्यराजों को योग्य है कि शुद्ध देश में उत्पन्न हुई ओषधियों के सारों को बना, उस के दान से सब के रोगों की निवृत्ति निरन्तर करें॥३१॥

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