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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 57
    ऋषिः - विदर्भिर्ऋषिः देवता - अश्विसरस्वतीन्द्रा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    इन्द्रा॒येन्दु॒ꣳ सर॑स्वती॒ नरा॒शꣳसे॑न न॒ग्नहु॑म्।अधा॑ताम॒श्विना॒ मधु॑ भेष॒जं भि॒षजा॑ सु॒ते॥५७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑य। इन्दु॑म्। सर॑स्वती। नरा॒शꣳसे॑न। न॒ग्नहु॑म्। अधा॑ताम्। अ॒श्विना॑। मधु॑। भे॒ष॒जम्। भि॒षजा॑। सु॒ते ॥५७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रायेन्दुँ सरस्वती नराशँसेन नग्नहुम् । अधातामश्विना मधु भेषजम्भिषजा सुते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्राय। इन्दुम्। सरस्वती। नराशꣳसेन। नग्नहुम्। अधाताम्। अश्विना। मधु। भेषजम्। भिषजा। सुते॥५७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 57
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    पदार्थ -
    (अश्विना) वैद्यकविद्या में व्याप्त (भिषजा) उत्तम वैद्यजन (इन्द्राय) दुःखनाश के लिये (सुते) उत्पन्न हुए इस जगत् में (मधु) ज्ञानवर्द्धक कोमलतादि गुणयुक्त (भेषजम्) औषध को (अधाताम्) धारण करें और (नराशंसेन) मनुष्यों से स्तुति किये हुए वचन से (सरस्वती) प्रशस्तविद्यायुक्त वाणी (नग्नहुम्) आनन्द कराने वाले विषय को ग्रहण करने वाले (इन्दुम्) ऐश्वर्य को धारण करें॥५७॥

    भावार्थ - वैद्य दो प्रकार के होते हैं-एक ज्वरादि शरीररोगों के नाशक चिकित्सा करनेहारे और दूसरे मन के रोग जो कि अविद्यादि मानस क्लेश हैं, उनके निवारण करनेहारे अध्यापक, उपदेशक हैं। जहां ये रहते हैं, वहां रोगों के विनाश से प्राणी लोग शरीर और मन के रोगों से छूटकर सुखी होते हैं॥५७॥

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