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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    ति॒स्रो ह॑ प्र॒जा अ॑त्या॒यमा॑य॒न्न्यन्या अ॒र्कम॒भितो॑ऽविशन्त। बृ॒हन्ह॑ तस्थौ॒ रज॑सो वि॒मानो॒ हरि॑तो॒ हरि॑णी॒रा वि॑वेश ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ति॒स्र: । ह॒ । प्र॒ऽजा: । अ॒ति॒ऽआ॒यम् । आ॒य॒न् । नि । अ॒न्या: । अ॒र्कम्‌ । अ॒भित॑: । अ॒वि॒श॒न्त॒ । बृ॒हन् । ह॒ । त॒स्थौ॒ । रज॑स: । वि॒ऽमान॑: । हरि॑त: । हरि॑णी: । आ । वि॒वे॒श॒ ॥८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तिस्रो ह प्रजा अत्यायमायन्न्यन्या अर्कमभितोऽविशन्त। बृहन्ह तस्थौ रजसो विमानो हरितो हरिणीरा विवेश ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तिस्र: । ह । प्रऽजा: । अतिऽआयम् । आयन् । नि । अन्या: । अर्कम्‌ । अभित: । अविशन्त । बृहन् । ह । तस्थौ । रजस: । विऽमान: । हरित: । हरिणी: । आ । विवेश ॥८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (तिस्रः) तीनों [ऊँची, नीची और मध्यम] (ह) ही (प्रजाः) प्रजा [कार्यरूप उत्पन्न पदार्थ] (अत्यायम्) नित्य गमन-आगमन को (आयन्) प्राप्त हुए, (अन्याः) दूसरे [कारणरूप पदार्थ] (अर्कम् अभि) पूजनीय [परमात्मा] के आस-पास (नि अविशन्त) ठहरे। (रजसः) संसार का (बृहन् ह) बड़ा ही (विमानः) विविध प्रकार नापनेवाला [वा विमानरूप आधार, परमेश्वर] (तस्थौ) खड़ा हुआ और (हरितः) दुःख हरनेवाले [हरि, परमात्मा] ने (हरिणीः) दिशाओं में (आ विवेश) सब ओर प्रवेश किया ॥३॥

    भावार्थ - परमेश्वर के नियम से पदार्थ कार्यदशा प्राप्त करके आगमन-गमन करते हैं, और दूसरे नित्य कारणरूप पदार्थ परमात्मा के सामर्थ्य में रहते हैं। इन सब पदार्थों की इयत्ता वही परमात्मा सब दिशाओं में व्याप कर जानता है ॥३॥

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