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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - भुरिगनुष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    इ॒दं स॑वित॒र्वि जा॑नीहि॒ षड्य॒मा एक॑ एक॒जः। तस्मि॑न्हापि॒त्वमि॑च्छन्ते॒ य ए॑षा॒मेक॑ एक॒जः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । स॒वि॒त॒: । वि । जा॒नी॒हि॒ । षट् । य॒मा: । एक॑: । ए॒क॒ऽज: । तस्मि॑न् । ह॒ । अ॒पिऽत्वम् । इ॒च्छ॒न्ते॒ । य: । ए॒षा॒म् । एक॑: । ए॒क॒ऽज: ॥८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं सवितर्वि जानीहि षड्यमा एक एकजः। तस्मिन्हापित्वमिच्छन्ते य एषामेक एकजः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । सवित: । वि । जानीहि । षट् । यमा: । एक: । एकऽज: । तस्मिन् । ह । अपिऽत्वम् । इच्छन्ते । य: । एषाम् । एक: । एकऽज: ॥८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (सवितः) हे ऐश्वर्यवान् [विद्वान् !] (इदम्) इस [बात] को (वि जानीहि) विज्ञानपूर्वक जान [कि] (षट्) छह (यमाः) यम [नियम से चलने चलानेवाले पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक मन] और (एकः) एक [जीवात्मा] (एकजः) [अपने कर्मानुसार] अकेला उत्पन्न होनेवाला है। (तस्मिन्) उस [जीवात्मा] में (ह) ही (अपित्वम्) बन्धुपन को (इच्छन्ते) वे [छह इन्द्रिय] प्राप्त करते हैं, (यः) जो [जीवात्मा] (एषाम्) इन [छह] के बीच (एकः) एक (एकजः) अकेला उत्पन्न होनेवाला है ॥५॥

    भावार्थ - मनुष्य को खोजना चाहिये कि इस शरीर में कौन से शुभ और अशुभ संस्कारों के कारण जीवात्मा के साथ पाँच ज्ञानेन्द्रिय अर्थात् कान, त्वचा, नेत्र, जिह्वा नासिका और छठे मन का संबन्ध है ॥५॥

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