अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 36
सूक्त - कुत्सः
देवता - आत्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त
इ॒मामे॑षां पृथि॒वीं वस्त॒ एको॒ऽन्तरि॑क्षं॒ पर्येको॑ बभूव। दिव॑मेषां ददते॒ यो वि॑ध॒र्ता विश्वा॒ आशाः॒ प्रति॑ रक्ष॒न्त्येके॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माम् । ए॒षा॒म् । पृ॒थि॒वीम् । वस्ते॑ । एक॑: । अ॒न्तरि॑क्षम् । परि॑ । एक॑: । ब॒भू॒व॒ । दिव॑म् । ए॒षा॒म् । द॒द॒ते॒ । य: । वि॒ऽध॒र्ता । विश्वा॑: । आशा॑: । प्रति॑ । र॒क्ष॒न्ति॒ । एके॑ ॥८.३६॥
स्वर रहित मन्त्र
इमामेषां पृथिवीं वस्त एकोऽन्तरिक्षं पर्येको बभूव। दिवमेषां ददते यो विधर्ता विश्वा आशाः प्रति रक्षन्त्येके ॥
स्वर रहित पद पाठइमाम् । एषाम् । पृथिवीम् । वस्ते । एक: । अन्तरिक्षम् । परि । एक: । बभूव । दिवम् । एषाम् । ददते । य: । विऽधर्ता । विश्वा: । आशा: । प्रति । रक्षन्ति । एके ॥८.३६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 36
विषय - परमात्मा और जीवात्मा के स्वरूप का उपदेश।
पदार्थ -
(एषाम्) इन [दिव्य पदार्थों] में से (एकः) एक [जैसे अग्नि] (इमाम्) इस (पृथिवीम्) पृथिवी को (वस्ते) ढकता है, (एकः) एक [जैसे वायु] ने (अन्तरिक्षम्) अन्तरिक्ष [मध्यलोक] को (परि बभूव) घेर लिया है। (येषाम्) इन में (यः) जो (विधर्ता) विविध प्रकार धारण करनेवाला है [जैसे वायु], वह (दिवम्) प्रकाश को (ददते) देता है, (एकः) कोई एक [दिव्य पदार्थ] (विश्वाः) सब (आशाः प्रति) दिशाओं में (रक्षन्ति) रक्षा करते हैं ॥३६॥
भावार्थ - यह गत मन्त्र का उत्तर है। यद्यपि विशेष करके अग्नि पृथिवी का, वायु अन्तरिक्ष का और सूर्य प्रकाश का रक्षक है। तथापि यह अन्य सब चन्द्र नक्षत्र आदि लोकों के परस्पर रक्षक हैं ॥३६॥ भगवान् यास्क मुनि ने निरु० ७।५। में लिखा है−“निरुक्तज्ञाता मानते हैं कि तीन ही देव हैं, अग्नि पृथिवीस्थानी, वायु वा इन्द्र अन्तरिक्षस्थानी, सूर्य द्युस्थानी। उनकी बड़ी महिमा के कारण एक-एक के बहुत नाम होते हैं। अथवा कर्म के अलग-अलग होने से जैसे होता, अध्वर्यु, ब्रह्मा, उद्गाता यह एक के होने से [एक ही के बहुत नाम हैं] अथवा वे अलग-अलग होवें, क्योंकि [उनकी] अलग-अलग स्तुतियाँ हैं, वैसे ही [अलग-अलग] नाम हैं” ॥
टिप्पणी -
३६−(इमाम्) दृश्यमानाम् (एषाम्) दिव्यपदार्थानां मध्ये (वस्ते) आच्छादयति (एकः) अग्निर्यथा (अन्तरिक्षम्) (एकः) वायुर्यथा (परि बभूव) आच्छादितवान् (दिवम्) प्रकाशम् (एषाम्) (ददते) दद दाने। ददाति (यः) (विधर्ता) विविधं धारकः सूर्यो यथा (आशाः) पूर्वादयो दिशाः (प्रति) लक्ष्यीकृत्य (रक्षन्ति) (एके) अन्ये। चन्द्रनक्षत्रादयः ॥