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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 30
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    ए॒षा स॒नत्नी॒ सन॑मे॒व जा॒तैषा पु॑रा॒णी परि॒ सर्वं॑ बभूव। म॒ही दे॒व्युषसो॑ विभा॒ती सैके॑नैकेन मिष॒ता वि च॑ष्टे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षा । स॒नत्नी॑ । सन॑म् । ए॒व । जा॒ता । ए॒षा । पु॒रा॒णी । परि॑ । सर्व॑म् । ब॒भू॒व॒ । म॒ही । दे॒वी । उ॒षस॑: । वि॒ऽभा॒ती । सा । एके॑नऽएकेन । मि॒ष॒ता । वि । च॒ष्टे॒ ॥८.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एषा सनत्नी सनमेव जातैषा पुराणी परि सर्वं बभूव। मही देव्युषसो विभाती सैकेनैकेन मिषता वि चष्टे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एषा । सनत्नी । सनम् । एव । जाता । एषा । पुराणी । परि । सर्वम् । बभूव । मही । देवी । उषस: । विऽभाती । सा । एकेनऽएकेन । मिषता । वि । चष्टे ॥८.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 30

    पदार्थ -
    (एषा) यह [शक्ति अर्थात् परमेश्वर] (सनम् एव) सदा से ही (सनत्नी) भक्तों की नेत्री [आगे बढ़ानेवाली] (जाता) प्रसिद्ध है, (एषा) इस (पुराणी) पुरानी से (सर्वम्) सब [जगत्] को (परिबभूव) घेर लिया है। (उषसः) प्रभात वेलाओं को (विभाती) प्रकाशित करनेवाली (सा) वह (मही) बड़ी (देवी) देवी [दिव्य शक्ति] (एकेनैकेन) एक-एक (मिषता) पलक मारने से [सबको] (वि चष्टे) देखती रहती है ॥३०॥

    भावार्थ - महान् शक्ति परमात्मा सर्वव्यापक और सर्वप्रकाशक होकर अपने भक्तों की बढ़ती करता और समस्त संसार की सुधि रखता है ॥३०॥

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