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  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 42
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - विराड्जगती सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    नि॒वेश॑नः सं॒गम॑नो॒ वसू॑नां दे॒व इ॑व सवि॒ता स॒त्यध॑र्मा। इन्द्रो॒ न त॑स्थौ सम॒रे धना॑नाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि॒ऽवेश॑न: । स॒म्ऽगम॑न: । वसू॑नाम् । दे॒व:ऽइ॑व । स॒वि॒ता । स॒त्यऽध॑र्मा । इन्द्र॑: । न । त॒स्थौ॒ । स॒म्ऽअ॒रे । धना॑नाम् ॥८.४२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    निवेशनः संगमनो वसूनां देव इव सविता सत्यधर्मा। इन्द्रो न तस्थौ समरे धनानाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    निऽवेशन: । सम्ऽगमन: । वसूनाम् । देव:ऽइव । सविता । सत्यऽधर्मा । इन्द्र: । न । तस्थौ । सम्ऽअरे । धनानाम् ॥८.४२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 42

    पदार्थ -
    (वसूनाम्) निवासों [पृथिवी आदि लोकों] का (निवेशनः) ठहरानेवाला और (संगमनः) चलानेवाला, (सत्यधर्मा) सत्य धर्मवाला [परमेश्वर] (धनानाम्) धनों के लिये [हमारे] (समरे) संग्राम में (देवः) प्रकाशमान (सविता इव) चलानेवाले सूर्य के समान और (इन्द्रः न) वायु के समान (तस्थौ) स्थित हुआ ॥४२॥

    भावार्थ - हम लोग सङ्ग्राम अर्थात् कठिनाई के समय सत्यस्वभाव, सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर का ध्यान करते हुए सूर्यसमान प्रतापी और वायुसमान शीघ्रगामी होकर यथावत् प्रयत्न करें ॥४२॥ यह मन्त्र भेद से ऋग्वेद १०।१३९।३ और यजु० १२।६६। में है ॥

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