Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 10/ सूक्त 8/ मन्त्र 41
    सूक्त - कुत्सः देवता - आत्मा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ज्येष्ठब्रह्मवर्णन सूक्त

    उत्त॑रेणेव गाय॒त्रीम॒मृतेऽधि॒ वि च॑क्रमे। साम्ना॒ ये साम॑ संवि॒दुर॒जस्तद्द॑दृशे॒ क्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्त॑रेणऽइव । गा॒य॒त्रीम् । अ॒मृते॑ । अधि॑ । वि । च॒क्र॒मे॒ । साम्ना॑ । ये । साम॑ । स॒म्ऽवि॒दु: । अ॒ज: । तत् । द॒दृ॒शे॒ । क्व᳡ ॥८.४१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तरेणेव गायत्रीममृतेऽधि वि चक्रमे। साम्ना ये साम संविदुरजस्तद्ददृशे क्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्तरेणऽइव । गायत्रीम् । अमृते । अधि । वि । चक्रमे । साम्ना । ये । साम । सम्ऽविदु: । अज: । तत् । ददृशे । क्व ॥८.४१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 10; सूक्त » 8; मन्त्र » 41

    पदार्थ -
    (उत्तरेण) उत्तम गुण से (इव=एव) ही (अमृते) अमृत [मोक्षसुख] में (अधि) अधिकार करके वह परमेश्वर (गायत्रीम्) गायत्री [स्तुति] की ओर (वि) विविध प्रकार (चक्रमे) आगे बढ़ा। (ये) जो [विद्वान्] (साम्ना) मोक्षज्ञान [के अभ्यास] से (साम) मोक्षज्ञान को (संविदुः) यथावत् जानते हैं [वे मानते हैं कि] (अजः) अजन्मा [परमेश्वर] (तत्) तब [मोक्षसुख पाता हुआ] (क्व) कहाँ (ददृशे) देखा गया ॥४१॥

    भावार्थ - मोक्षस्वरूप परमात्मा ही अपने अनुपम श्रेष्ठ गुणों से स्तुतियोग्य है। उस मोक्ष गुण दशा का अनुभव ब्रह्मज्ञानी ही कर सकते हैं ॥४१॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top