अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
सोमो॒ राजा॑ म॒स्तिष्को॒ द्यौरु॑त्तरह॒नुः पृ॑थि॒व्यधरह॒नुः ॥
स्वर सहित पद पाठसोम॑: । राजा॑ । म॒स्तिष्क॑: । द्यौ: । उ॒त्त॒र॒ऽह॒नु: । पृ॒थि॒वी । अ॒ध॒र॒ऽह॒नु: ॥१२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमो राजा मस्तिष्को द्यौरुत्तरहनुः पृथिव्यधरहनुः ॥
स्वर रहित पद पाठसोम: । राजा । मस्तिष्क: । द्यौ: । उत्तरऽहनु: । पृथिवी । अधरऽहनु: ॥१२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
विषय - सृष्टि की धारणविद्या का उपदेश।
पदार्थ -
[सृष्टि में] (राजा) शासक (सोमः) ऐश्वर्य [अथवा अमृत जल वा चन्द्रमा] (मस्तिष्कः) भेजा [कपाल की चिकनाई], (द्यौः) आकाश (उत्तरहनुः) ऊपर का जबड़ा, (पृथिवी) पृथिवी (अधरहनुः) नीचे का जबड़ा [के तुल्य है] ॥२॥
भावार्थ - जैसे भेजे की शक्ति का प्रभाव मनुष्य के शरीर और विचारों पर रहता है, अथवा जैसे जल और चन्द्रमा अन्न आदि के लिये उपयोगी हैं, वैसे ही चक्राकार सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में ईश्वरत्व प्रधान गुण है ॥२॥
टिप्पणी -
२−(सोमः) अ० १।६।२। षु ऐश्वर्ये-मन्। ऐश्वर्यम् (राजा) शासकः (मस्तिष्कः) मस्त+इष गतौ-क, पृषोदरादित्वात् साधुः। मस्तं मस्तकमिष्यति प्राप्नोतीति। मस्तकभवघृताकारस्नेहः (द्यौः) आकाशः (उत्तरहनुः) उपरिस्थकपोलप्रदेशः (पृथिवी) (अधरहनुः) नीचस्थकपोलभागः ॥