अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 7/ मन्त्र 25
ए॒तद्वै वि॒श्वरू॑पं॒ सर्व॑रूपं गोरू॒पम् ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तत् । वै । वि॒श्वऽरू॑पम् । सर्व॑ऽरूपम् । गो॒ऽरू॒पम् ॥१२.२५॥
स्वर रहित मन्त्र
एतद्वै विश्वरूपं सर्वरूपं गोरूपम् ॥
स्वर रहित पद पाठएतत् । वै । विश्वऽरूपम् । सर्वऽरूपम् । गोऽरूपम् ॥१२.२५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 7; मन्त्र » 25
विषय - सृष्टि की धारणविद्या का उपदेश।
पदार्थ -
(एतद्) व्यापक ब्रह्म (वै) ही (विश्वरूपम्) जगत् का रूप देनेवाला, (सर्वरूपम्) सब का रूप देनेवाला और (गोरूपम्) [प्राप्ति योग्य] स्वर्ग [सुखविशेष] का रूप देनेवाला [है] ॥२५॥
भावार्थ - सर्वस्रष्टा परमेश्वर प्राणियों को उनके कर्मानुसार सुख देता है ॥२५॥
टिप्पणी -
२५−(एतद्) एतेस्तुट् च। उ० १।१३३। इण् गतौ-अदि, तुट् च। व्यापकं ब्रह्म (वै) हि (विश्वरूपम्) जगतो रूपं यस्मात् तत् (सर्वरूपम्) सर्वरूपकरम् (गोरूपम्) गौः स्वर्गः। (स्वर्गस्य) रूपकरम् ॥