यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 11
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - भुरिक् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
2
हस्त॑ऽआ॒धाय॑ सवि॒ता बिभ्र॒दभ्रि॑ꣳ हिर॒ण्ययी॑म्। अ॒ग्नेर्ज्योति॑र्नि॒चाय्य॑ पृथि॒व्याऽअध्याभ॑र॒दानु॑ष्टुभेन॒ छन्द॑साङ्गिर॒स्वत्॥११॥
स्वर सहित पद पाठहस्ते॑। अ॒धायेत्या॒ऽधाय॑। स॒वि॒ता। बिभ्र॑त्। अभ्रि॑म्। हि॒र॒ण्ययी॑म्। अ॒ग्नेः। ज्योतिः॑। नि॒चाय्येति॑ नि॒ऽचाय्य॑। पृ॒थि॒व्याः। अधि॑। आ। अ॒भ॒र॒त्। आनु॑ष्टुभेन। आनु॑स्तुभे॒नेत्यानु॑ऽस्तुभेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् ॥११ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हस्तऽआधाय सविता बिभ्रदभ्रिँ हिरण्ययीम् । अग्नेर्ज्यातिर्निचाय्य पृथिव्या अध्याभरदानुष्टुभेन च्छन्दसाङ्गिरस्वत् ॥
स्वर रहित पद पाठ
हस्ते। अधायेत्याऽधाय। सविता। बिभ्रत्। अभ्रिम्। हिरण्ययीम्। अग्नेः। ज्योतिः। निचाय्येति निऽचाय्य। पृथिव्याः। अधि। आ। अभरत्। आनुष्टुभेन। आनुस्तुभेनेत्यानुऽस्तुभेन। छन्दसा। अङ्गिरस्वत्॥११॥
विषय - ‘आनुष्टुभ’ छन्द
पदार्थ -
१. ( सविता ) = अपने में ज्ञानैश्वर्य उत्पन्न करनेवाला ‘सविता’ गत मन्त्र में वर्णित वेदवाणी को ( हस्ते आधाय ) = हाथ में धारण करके, [ on the tip of his fingers ], अर्थात् वेद-ज्ञान को आत्मसात् [ assimilate ] करके इस ( हिरण्ययीम् ) = ज्योतिर्मयी—ज्ञान के प्रकाश से परिपूर्ण ( अभ्रिम् ) = मलों के दूर करनेवाली [ अभ्रति गच्छति मलं यस्मात् ] वेदवाणी को ( बिभ्रत् ) = धारण करता हुआ ( अग्नेः ज्योतिः ) = उस अग्रेणी प्रभु के प्रकाश को ( निचाय्य ) = निश्चय से प्राप्त करके ( पृथिव्याः अधि आभरत् ) = अपने को पृथिवी से ऊपर उठाता है, अर्थात् सविता [ क ] वेदवाणी को अपनाता है। [ ख ] उसके ज्योतिर्मय ज्ञान को धारण करता है। [ ग ] प्रभु के प्रकाश को देखता है। [ घ ] और परिणामतः उस प्रभु-दर्शन के सुख की तुलना में उसके लिए सब पार्थिव भोग अत्यन्त तुच्छ हो जाते हैं।
२. अब यह ( आनुष्टुभेन ) = अनुक्षण उस प्रभु के स्तवन की ( छन्दसा ) = इच्छा से ( अङ्गिरस्वत् ) = अङ्गिरस् की भाँति बन जाता है। वस्तुतः जिस व्यक्ति का जीवन सतत प्रभु स्मरणवाला हो जाता है उसका जीवन कभी भी इन प्राकृतिक विषयों से बद्ध नहीं होता, वह कभी भी भोगों का शिकार नहीं होता। परिणामतः उसके जीवन में उसके अङ्ग कभी नीरस नहीं होते।
भावार्थ -
भावार्थ — हम वेदवाणी का स्मरण करें। उसकी ज्ञान-ज्योति को देखें। प्रभु के प्रकाश का अनुभव करें। प्रतिक्षण प्रभु-स्मरण से जीवन को सरस बनाएँ।
टिप्पणी -
सूचना — मन्त्र ९ से ११ तक क्रमशः ‘गायत्र, त्रैष्टुभ, जागत व आनुष्टुभ’ छन्दों का उल्लेख है। सामान्यतः ब्रह्मचारी को ‘गायत्र’ छन्दवाला होना है, वीर्यरक्षा द्वारा अपनी प्राणशक्ति का उचित पोषण करना उसका कर्त्तव्य है। गृहस्थ में प्रवेश करते समय ‘त्रैष्टुभ’ छन्द का पोषण करना है कि मुझे ‘काम, क्रोध व लोभ’ को रोकना है। वनस्थ होकर उसका छन्द ‘जागत’ हो गया है—जगती के हित के लिए वह अपने को साधना में चला रहा है और अन्त में संन्यस्त होकर वह आनुष्टुभ छन्दवाला हुआ है, यह अनुक्षण प्रभु का स्मरण करता हुआ जीवन-यात्रा को पूर्ण कर रहा है।
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