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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 18
    ऋषिः - मयोभूर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    आ॒गत्य॑ वा॒ज्यध्वा॑न॒ꣳ सर्वा॒ मृधो॒ विधू॑नुते। अ॒ग्निꣳ स॒धस्थे॑ मह॒ति चक्षु॑षा॒ निचि॑कीषते॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒गत्येत्या॒ऽऽगत्य॑। वा॒जी। अध्वा॑नम्। सर्वाः॑। मृधः॑। वि। धू॒नु॒ते॒। अ॒ग्निम्। स॒धस्थ॒ इति॑ स॒धस्थे॑। म॒ह॒ति। चक्षु॑षा। नि। चि॒की॒ष॒ते॒ ॥१८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आगत्य वाज्यध्वानँ सर्वा मृधो विधूनुते । अग्निँ सधस्थे महति चक्षुषा नि चिकीषते ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आगत्येत्याऽऽगत्य। वाजी। अध्वानम्। सर्वाः। मृधः। वि। धूनुते। अग्निम्। सधस्थ इति सधस्थे। महति। चक्षुषा। नि। चिकीषते॥१८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 18
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    पदार्थ -

    १. गत मन्त्र के अनुसार दैनिक कार्यक्रम को चलानेवाला व्यक्ति शक्तिशाली बनता है। यह ( वाजी ) = शक्तिशाली व्यक्ति ( अध्वानम् आगत्य ) = मार्ग पर आकर २. ( सर्वाः मृधः ) = सब हिंसकों को, कार्य के विघ्नों को ( विधूनुते ) = कम्पित करके दूर कर देता है। संक्षेप में, यह मार्ग पर चलता है, कभी पथभ्रष्ट नहीं होता। यह मार्ग में आये विघ्नों को दूर करने के लिए यत्नशील होता है। इसके जीवन में कभी निराशा व निरुत्साह नहीं आ जाते। 

    ३. मार्ग पर चलता हुआ तथा आये हुए विघ्नों को दूर करके आगे बढ़ता हुआ यह ( अग्निम् ) = उस अग्रेणी परमात्मा को ( महति सधस्थे ) = महनीय—जीवात्मा और परमात्मा के साथ ठहरने के उत्तम स्थान में, अर्थात् हृदयाकाश में ( चक्षुषा ) = विषयव्यावृत्त चक्षु के द्वारा, अन्तर्मुखदृष्टि के द्वारा ( निचिकीषते ) = [ पश्यति—उ० ] देखता है, अर्थात् अपनी जीवन-यात्रा में प्रभु को कभी भूलता नहीं। प्रतिदिन प्रातःसायं अर्न्तदृष्टि होकर हृदयरूप गुहा में विचरनेवाले अपने मित्र प्रभु का दर्शन करने का प्रयत्न करता है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — मयोभूः = कल्याण का भावन करनेवाला तीन बातें करता है— १. सन्मार्ग पर चलता है। २. विघ्नों को दूर करता है। ३. अन्तर्मुख होकर हृदयस्थ प्रभु के दर्शन करता है।

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