Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 36
    ऋषिः - गृत्समद ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    3

    नि होता॑ होतृ॒षद॑ने॒ विदा॑नस्त्वे॒षो दी॑दि॒वाँ२ऽअ॑सदत् सु॒दक्षः॑। अद॑ब्धव्रतप्रमति॒र्वसि॑ष्ठः सहस्रम्भ॒रः शुचि॑जिह्वोऽअ॒ग्निः॥३६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि। होता॑। हो॒तृ॒षद॑ने। हो॒तृ॒सद॑न॒ इति॑ होतृ॒सद॑ने। विदा॑नः। त्वे॒षः। दी॒दि॒वानिति॑ दीदि॒ऽवान्। अ॒स॒द॒त्। सु॒दक्ष॒ इति॑ सु॒ऽदक्षः॑। अद॑ब्धव्रतप्रमति॒रित्यद॑ब्धव्रतऽप्रमतिः। वसि॑ष्ठः। स॒ह॒स्र॒म्भ॒र इति॑ सहस्रम्ऽभ॒रः। शुचि॑जिह्व॒ इति॒ शुचि॑ऽजिह्वः। अ॒ग्निः ॥३६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि होता होतृषदने विदानस्त्वेषो दीदिवाँ ऽअसदत्सुदक्षः । अदब्धव्रतप्रमतिर्वसिष्ठः सहस्रम्भरः शुचिजिह्वोऽअग्निः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नि। होता। होतृषदने। होतृसदन इति होतृसदने। विदानः। त्वेषः। दीदिवानिति दीदिऽवान्। असदत्। सुदक्ष इति सुऽदक्षः। अदब्धव्रतप्रमतिरित्यदब्धव्रतऽप्रमतिः। वसिष्ठः। सहस्रम्भर इति सहस्रम्ऽभरः। शुचिजिह्व इति शुचिऽजिह्वः। अग्निः॥३६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 36
    Acknowledgment

    पदार्थ -

    १. मार्ग को ही स्पष्ट करने के लिए गृत्समद [ स्तोता व सदा प्रसन्न ] के जीवन का वर्णन करते हैं कि यह ( होता ) = सदा दानपूर्वक अदन करनेवाला होता है। त्यक्तेन भुञ्जीथाः = त्यागपूर्वक उपभोक्ता होता है। 

    २. ( होतृषदने न्यसदत् ) = होताओं के घर में निवास करता है—यह प्रयत्न करता है कि उसके घर में, उसके परिचितों के घर में सभी की वृत्ति ‘होता’ की वृत्ति हो। सभी में दानपूर्वक यज्ञ-शेष को ही खाने का भाव हो। 

    ३. ( विदानः ) = यह ज्ञानी हो, समझदार हो। लोक-व्यवहार को समझता हो, भौंदू न हो। 

    ४. ( त्वेषः ) = भोगवृत्तिवाला न होने से स्वस्थ हो और इसके चेहरे पर स्वास्थ्य की दीप्ति हो। 

    ५. ( दीदिवान् ) = इसके मस्तिष्क में ज्ञान की ज्योति हो। यह ज्ञानाग्नि को अपने में प्रज्वलित करनेवाला बने। 

    ६. ( सुदक्षः ) = बड़ा कार्यकुशल हो। दक्ष dexterous = निपुण हो। 

    ७. ( अदब्धव्रतप्रमतिः ) = अहिंसित व्रतों व प्रकृष्ट बुद्धिवाला हो। 

    ८. अहिंसित व्रतों व बुद्धि के कारण ही यह ( वसिष्ठः ) = उत्तम निवासवाला हो। अथवा वशियों [ वश में करनेवालों में ] में यह श्रेष्ठ हो। 

    ९. जितेन्द्रियता के परिणामरूप यह ( सहस्रम्भरः ) = हजारों का पोषण करनेवाला हो, यह केवल ‘स्वोदरम्भरि’ =  अपने पेट को भरनेवाला ही न बना रहे। 

    १०. ( शुचिजिह्वः ) = इसकी जिह्वा ( शुचि ) = दीप्त व पवित्र हो। यह शुभ ही शब्द बोले अशुभ नहीं। 

    ११. इस प्रकार ( अग्निः ) = यह निरन्तर आगे बढ़नेवाला हो।

    भावार्थ -

    भावार्थ — ‘गृत्समद’ वही है जो उल्लिखित ११ बातों को अपने जीवन में लाता है। वस्तुतः जीवन का ठीक मार्ग है ही यह।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top