Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 27
    ऋषिः - गृत्समद ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    2

    त्वम॑ग्ने॒ द्युभि॒स्त्वमा॑शुशु॒क्षणि॒स्त्वम॒द्भ्यस्त्वमश्म॑न॒स्परि॑। त्वं वने॑भ्य॒स्त्वमोष॑धीभ्य॒स्त्वं नृ॒णां नृ॑पते जायसे॒ शुचिः॑॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। अ॒ग्ने॒। द्युभि॒रिति॒ द्युऽभिः॑। त्वम्। आ॒शु॒शु॒क्षणिः॑। त्वम्। अ॒द्भ्य इत्य॒त्ऽभ्यः। त्वम्। अश्म॑नः। परि॑। त्वम्। वने॑भ्यः। त्वम्। ओष॑धीभ्यः। त्वम्। नृ॒णाम्। नृ॒प॒त॒ इति॑ नृऽपते। जा॒य॒से॒। शुचिः॑ ॥२७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने द्युभिस्त्वमाशुशुक्षणिस्त्वमद्भ्यस्त्वमश्मनस्परि । त्वँवनेभ्यस्त्वमोषधीभ्यस्त्वन्नृणां नृपते जायसे शुचिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। द्युभिरिति द्युऽभिः। त्वम्। आशुशुक्षणिः। त्वम्। अद्भ्य इत्यत्ऽभ्यः। त्वम्। अश्मनः। परि। त्वम्। वनेभ्यः। त्वम्। ओषधीभ्यः। त्वम्। नृणाम्। नृपत इति नृऽपते। जायसे। शुचिः॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 27
    Acknowledgment

    पदार्थ -

    १. प्रभु से रक्षित गत मन्त्र का ‘पायु’ फिर से प्रभु-स्तवन में आनन्द लेता हुआ ‘गृत्समद’ बनता है और इस रूप में स्तुति करता है— २. हे ( अग्ने ) = अपने तेज से सब बुराइयों को भस्म करनेवाले प्रभो! ( त्वम् ) = आप और ( त्वम् ) = आप ही ( द्युभिः ) = अपनी ज्ञान-ज्योतियों से ( आशुशुक्षणिः ) = शीघ्रता से हमारे सब काम, क्रोध व लोभादि शत्रुओं का शोषण करनेवाले हैं। प्रभु की ज्योति से दीप्त हृदय में वासना-लताएँ नहीं पनपतीं। 

    २. हे ( नृपते ) = वासना-शोषण द्वारा मनुष्यों के रक्षक प्रभो! ( शुचिः ) = आप पूर्ण पवित्र व पूर्ण दीप्त हो। 

    ३. ( त्वम् ) = आप ( अद्भ्यः ) = समुद्र के विस्तृत जलों से ( जायसे ) = आविर्भूत होते हो। ( ‘यस्य समुद्रम् ) = ये समुद्र भी तो आपकी महिमा का प्रतिपादन कर रहे हैं। 

    ४. ( त्वम् ) = आप ( अश्मनः ) = मेघ से [ नि० १।१० ] ( परिजायसे ) = अन्तरिक्ष में चारों ओर आविर्भूत हो रहे हो। अन्तरिक्ष में उमड़ते हुए बादल आपकी महिमा को प्रकट कर रहे हैं। 

    ५. ( त्वं वनेभ्यः ) = आप ही इन मीलों-मील फैले हुए वनों में प्रकट हो रहे हैं। इन वनों में भी आपकी ही विभूति दृष्टिगोचर होती है। 

    ६. ( त्वम् ओषधीभ्यः ) = आप ही इन वनोत्पन्न ओषधियों में प्रकट होते हो। ओषधियाँ भी आपकी ही महिमा का प्रतिपादन कर रही हैं। इस महिमा को ज्ञानी ही सुन पाता है। 

    ७. ( त्वम् ) = आप ( नृणाम् ) = [ नॄ नयने ] अपने को उन्नति-पथ पर ले-चलनेवाले पुरुषों में ( जायसे ) = आविर्भूत होते हो। वे श्रेष्ठ पुरुष भी आपकी ही विभूति होते हैं। 

    ८. यहाँ प्रसंगवश यह भी स्पष्ट है कि प्रभु का दर्शन वे ही करते हैं जो मेघस्थ जलों का या वन की वनस्पतियों का ही प्रयोग करते हैं।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हम प्रभु-दर्शन के लिए वनौषधियों को ही भोजन बनाएँ, मेघजलों को ही पेय द्रव्य समझें। निरन्तर आगे बढ़ने की भावनावाले हों। अवश्य हममें प्रभु की ज्योति जगेगी और उस ज्योति से सब वासनाएँ भस्म हो जाएँगी।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top