यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 77
ऋषिः - नाभानेदिष्ठ ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
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याः सेना॑ऽअ॒भीत्व॑रीराव्या॒धिनी॒रुग॑णाऽउ॒त। ये स्ते॒ना ये च॒ तस्क॑रा॒स्ताँस्ते॑ऽअ॒ग्नेऽपि॑दधाम्या॒स्ये॥७७॥
स्वर सहित पद पाठयाः। सेनाः॑। अ॒भीत्व॑री॒रित्य॑भि॒ऽइत्व॑रीः। आ॒व्या॒धिनी॒रित्या॑ऽव्या॒धिनीः॑। उग॑णाः। उ॒त। ये। स्ते॒नाः। ये। च॒। तस्क॑राः। तान्। ते॒। अ॒ग्ने॒। अपि॑। द॒धा॒मि॒। आ॒स्ये᳖ ॥७७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
याः सेनाऽअभीत्वरीराव्याधिनीरुगणाऽउत । ये स्तेना ये च तस्करास्ताँस्तेऽअग्नेपिदधाम्यास्ये ॥
स्वर रहित पद पाठ
याः। सेनाः। अभीत्वरीरित्यभिऽइत्वरीः। आव्याधिनीरित्याऽव्याधिनीः। उगणाः। उत। ये। स्तेनाः। ये। च। तस्कराः। तान्। ते। अग्ने। अपि। दधामि। आस्ये॥७७॥
विषय - न शत्रु, न चोर
पदार्थ -
१. गत मन्त्र में वर्णित सद्गृहस्थ बनने के लिए राज्य-व्यवस्था का उत्तम होना आवश्यक है। चोरों, डाकुओं व शत्रुओं के भय से रहित राज्य में ही सब प्रकार से जीवन की उन्नति सम्भव है, अतः कहते हैं कि २. ( याः ) = जो ( सेनाः ) = शत्रु-सेनाएँ ( अभीत्वरीः ) = राष्ट्र पर चारों ओर से आक्रमण करनेवाली हैं ( आव्याधिनीः ) = नाना प्रकार के अस्त्रों से विद्ध करनेवाली हैं, ( उत ) = और ( उगणाः ) = उद्यत आयुध-समूहवाली हैं—जिनके पास तलवार, बन्दूक आदि शस्त्र हैं। ३. इनके अतिरिक्त ( ये ) = जो ( स्तेनाः ) = चोर हैं, ( ये च ) = और जो ( तस्कराः ) [ = द्यूतादिकापट्येन परपदार्थापहर्ताः—द० ] द्यूत आदि के छल-कपट से दूसरों के धनों का हरण करनेवाले हैं, ( तान् ) = उन पुरुषों को, हे ( अग्ने ) = राष्ट्र के अग्रणी राजन्! ( ते आस्ये ) = तेरे मुख में ( अपिदधामि ) = स्थापित करता हूँ, अर्थात् राजा राष्ट्र में शान्ति व विश्वस्तता के लिए शत्रुओं के आक्रमण-भय को तथा राष्ट्र के अन्दर चोरों व लुटेरों के भय को समाप्त करने का पूर्ण प्रयत्न करे।
भावार्थ -
भावार्थ — किसी भी प्रकार की उन्नति तभी सम्भव है जब न बाह्य शत्रुओं के आक्रमणों की आशंका हो, न चोर-लुटेरों के उपद्रव का भय। इस सुराज्य को वही राजा ला सकता है जो ‘नाभानेदिष्ठ’ है—सदा यज्ञरूप-केन्द्र के समीप रहनेवाला है।
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