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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 32
    ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    पु॒री॒ष्योऽसि वि॒श्वभ॑रा॒ऽअथ॑र्वा त्वा प्रथ॒मो निर॑मन्थदग्ने। त्वाम॑ग्ने॒ पुष्क॑रा॒दध्यथ॑र्वा॒ निर॑मन्थत॥ मू॒र्ध्नो विश्व॑स्य वा॒घतः॑॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒री॒ष्यः᳖। अ॒सि॒। वि॒श्वभ॑रा॒ इति॑ वि॒श्वऽभ॑राः। अथ॑र्वा। त्वा॒। प्र॒थ॒मः। निः। अ॒म॒न्थ॒त्। अ॒ग्ने॒। त्वाम्। अ॒ग्ने॒। पुष्क॑रात्। अधि॑। अथ॑र्वा। निः। अ॒म॒न्थ॒त॒। मू॒र्ध्नः। विश्व॑स्य। वा॒घतः॑ ॥३२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरीष्योसि विश्वभराऽअथर्वा त्वा प्रथमो निरमन्थदग्ने । त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत । मूर्ध्ना विश्वस्य वाघतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुरीष्यः। असि। विश्वभरा इति विश्वऽभराः। अथर्वा। त्वा। प्रथमः। निः। अमन्थत्। अग्ने। त्वाम्। अग्ने। पुष्करात्। अधि। अथर्वा। निः। अमन्थत। मूर्ध्नः। विश्वस्य। वाघतः॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 32
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    पदार्थ -

    १. ‘गृत्समद’ का वर्णन गत मन्त्रों में था। यह ‘प्रभु-स्तवन करता है, और मस्त रहता है’ अतः अपने में शक्ति का भरण करके ‘भरद्वाज’ बन जाता है। शक्ति का ह्रास मौलिकरूप से दो कारणों से होता है। [ क ] हम प्रभु से दूर हो जाते हैं तो हमें पग-पग पर घबराहट होती है। [ ख ] जब जीवन में प्रसन्नता नहीं रहती तो चिन्ता हमें खाये चली जाती है। चिन्ता शक्ति के लिए चिता के समान है। चिन्ता गई और मनुष्य ‘भरद्वाज’ [ शक्ति-सम्पन्न ] बना। यह भरद्वाज प्रभु-स्तवन करता है कि— २. ( पुरीष्यः असि ) = हे प्रभो! आप स्तोताओं के जीवन में आनन्द का पूरण करनेवाले हो। 

    ३. ( विश्वभरा ) = सबका भरण करनेवाले हो। 

    ४. ( अग्ने ) = प्रभो! ( प्रथमः ) = अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाला ( अथर्वा ) = [ न थर्वति ] न डाँवाँडोल होनेवाला, अडोल मनवाला, स्थितप्रज्ञ ही ( त्वा ) = आपका ( निरमन्थत् ) = निश्चय से मन्थन कर पाता है। जैसे एक व्यक्ति दही का मन्थन करके घृत का दर्शन करता है, इसी प्रकार हे ( अग्ने ) = सब उन्नतियों के साधक प्रभो! ( अथर्वा ) = अडोल मनवाला पुरुष ही ( त्वाम् ) = आपको ( पुष्करात् अधि ) = इस कमल-पत्र की भाँति निर्लेप मन से ( निर् अमन्थत ) = निश्चय से मन्थित करता है, अर्थात् अपने इस हृदयाकाश में आपका दर्शन करता है। अथर्वा की भाँति ( वाघतः ) = मेधावी पुरुष—ज्ञान का वहन करनेवाला पुरुष ( विश्वस्य ) = [ विशति ] व्यापक ज्ञान में प्रवेश करनेवाले ( मूर्ध्नः ) = मस्तिष्क से आपका मन्थन करनेवाला होता है, अर्थात् आपके ज्ञान के लिए वासनाओं से अनान्दोलित मन तथा ब्रह्माण्ड के सब पदार्थों के ज्ञान का वहन करनेवाला मस्तिष्क दोनों ही आवश्यक हैं—‘निर्लिप्त मन तथा दीप्त मस्तिष्क।’

    भावार्थ -

    भावार्थ — प्रभु ही सुखों का पूरण करनेवाले तथा सबका भरण करनेवाले हैं। हम अपने हृदयों को विषय-पङ्क से अलिप्त रक्खें, मस्तिष्क को सम्पूर्ण ज्ञान से भरने का प्रयत्न करें—यही प्रभु-दर्शन का मार्ग है।

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