यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 26
परि॑ त्वाग्ने॒ पुरं॑ व॒यं विप्र॑ꣳ सहस्य धीमहि। धृ॒षद्व॑र्णं दि॒वेदि॑वे ह॒न्तारं॑ भङ्गु॒राव॑ताम्॥२६॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑। त्वा॒। अ॒ग्ने॒। पुर॑म्। व॒यम्। विप्र॑म्। स॒ह॒स्य॒। धी॒म॒हि॒। धृ॒षद्व॑र्ण॒मिति॑ धृ॒षत्ऽव॑र्णम्। दि॒वेदि॑व॒ इति॑ दि॒वेऽदि॑वे। ह॒न्तार॑म्। भ॒ङ्गु॒राव॑ताम्। भ॒ङ्गु॒रव॑ता॒मिति॑ भङ्गु॒रऽव॑ताम् ॥२६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परित्वाग्ने पुरँवयं विप्रँ सहस्य धीमहि । धृषद्वर्णन्दिवेदिवे हन्तारम्भङ्गुरावताम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
परि। त्वा। अग्ने। पुरम्। वयम्। विप्रम्। सहस्य। धीमहि। घृषद्वर्णमिति धृषत्ऽवर्णम्। दिवेदिव इति दिवेऽदिवे। हन्तारम्। भङ्गुरावताम्। भङ्गुरवतामिति भङ्गुरऽवताम्॥२६॥
विषय - परितो-धारण—स्थितप्रज्ञता
पदार्थ -
१. गत मन्त्र का ‘सोमक’ = विनीत प्रभु के प्रति अपना अर्पण करके पूर्णरूप से अपना रक्षण कर पाता है, उसी प्रकार जैसेकि माता की गोद में आत्मार्पण करनेवाला बालक। इस अर्पण को करनेवाला यह ‘पायुः’ [ पा रक्षणे ] नामवाला होता है। यह कहता है कि १. हे ( अग्ने ) = हमारी सब उन्नतियों के साधक प्रभो! ( वयम् ) = हम ( त्वा ) = आपको ( परिधीमहि ) = अपने चारों ओर धारण करते हैं। जो आप ३. ( पुरम् ) = [ पॄ पालनपूरणयोः ] अपनी विविध क्रियाओं के द्वारा हमारा पालन व पूरण करनेवाले हैं। आपने हमारे पालन के लिए अनेकविध ओषधि-वनस्पतियों का निर्माण किया है।
४. ( विप्रम् ) = आप ज्ञानी हो, क्रान्तदर्शी = कवि हो। ज्ञान के द्वारा विशेषरूप से सबका पूरण करनेवाले हो। ज्ञानाग्नि ही तो दोषों को विच्छिन्न करती है।
५. ( सहस्य ) = हे प्रभो! आप सहस् में उत्तम हो अथवा सहस् में निवास करनेवाले हो। जिस पुरुष में सहनशक्ति होती है उसी में आपका निवास है।
६. ( धृषद्ववर्णम् ) = [ धृष्णोतीति धृषन् प्रगल्भो वर्णो यस्य तम् असह्यरूपम्—म० ] असह्य तेजवाले आप हैं। आपके तेज के सामने अन्य सब तेज पराभूत हो जाते हैं।
७. इस तेज से ही आप ( दिवे-दिवे ) = प्रति-दिन ( भङ्गुरावताम् ) = तोड़-फोड़ के कामों में लगे हुए राक्षसों के ( हन्तारम् ) = नष्ट करनेवाले हैं। अथवा ( भंगुर ) = अनवस्थित मनवालों के—डाँवाँडोल मनोवृत्तिवालों के आप समाप्त करनेवाले हैं। स्थितप्रज्ञ दैवीवृत्तिवाला व्यक्ति ही आपका रक्षणीय होने से ‘पायु’ [ one who is protected ] है।
भावार्थ -
भावार्थ — वे प्रभु ‘अग्नि-पुरं-विप्र-सहस्य-धृषद्वर्ण व भंगुरावत्—हन्ता’ हैं। हम भंगुर-वृत्तिवाले न बनकर स्थितप्रज्ञ बनें और प्रभु के रक्षणीय हों। प्रभु को परितः धारण करनेवाला ही प्रभु का रक्षणीय होता है।
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