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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 12
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठ ऋषिः देवता - वाजी देवता छन्दः - आस्तारपङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    प्रतू॑र्त्तं वाजि॒न्नाद्र॑व॒ वरि॑ष्ठा॒मनु॑ सं॒वत॑म्। दि॒वि ते॒ जन्म॑ पर॒मम॒न्तरि॑क्षे॒ तव॒ नाभिः॑ पृथि॒व्यामधि॒ योनि॒रित्॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रतू॑र्त्त॒मिति॒ प्रऽतू॑र्त्तम्। वा॒जि॒न्। आ। द्र॒व॒। वरि॑ष्ठाम्। अनु॑। सं॒वत॒मिति॑ स॒म्ऽवत॑म्। दि॒वि। ते॒। जन्म॑। प॒र॒मम्। अ॒न्तरि॑क्षे। तव॑। नाभिः॑। पृ॒थि॒व्याम्। अधि॑। योनिः॑। इत् ॥१२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रतूर्तँवाजिन्नाद्रव वरिष्ठामनु सँवतम् । दिवि ते जन्म परममन्तरिक्षे तव नाभिः पृथिव्यामधि योनिरित् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रतूर्त्तमिति प्रऽतूर्त्तम्। वाजिन्। आ। द्रव। वरिष्ठाम्। अनु। संवतमिति सम्ऽवतम्। दिवि। ते। जन्म। परमम्। अन्तरिक्षे। तव। नाभिः। पृथिव्याम्। अधि। योनिः। इत्॥१२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 12
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    पदार्थ -

    १. गत मन्त्र का आनुष्टुभ छन्द को अपनानेवाला, निरन्तर प्रभु-स्मरण करनेवाला ‘सविता’ सदा प्रभु के समीप रहने से ‘नाभानेदिष्ठ’ बना है—केन्द्र के समीप रहनेवाला। प्रभु संसार की नाभि-केन्द्र हैं, यह सदा प्रभु का उपासक रहता है। प्रभु की शक्ति से यह शक्ति-सम्पन्न बनता है और वाज = शक्तिवाला होने से ‘वाजिन्’ शब्द से यहाँ सम्बोधित हुआ है। हे ( वाजिन् ) = शक्तिशालीन् उपासक! ( प्रतूर्तम् ) = शीघ्रता से, आलस्य-शून्यता से ( आद्रव ) = समन्तात् गतिवाला हो—अपने सब कर्त्तव्यों को करनेवाला बन। 

    २. तू अपने कर्त्तव्यों को ( वरिष्ठां संवतं अनु ) [ सम् वन् क्विप् ] = उत्कृष्ट सम्भजन—संविभाग के अनुसार करनेवाला हो। तू किसी एक ही कर्त्तव्य में न उलझ जा। यह उत्कृष्ट सम्भजन व संविभाग यह है कि— ३. [ क ] ( दिवि ) = द्युलोक में, मस्तिष्क में ( ते ) = तेरा ( परमम् ) = सर्वोत्कृष्ट ( जन्म ) = प्रादुर्भाव व विकास हो, अर्थात् तू अपने ज्ञान को अधिक-से-अधिक ऊँचाई तक ले-जाने का प्रयत्न कर। ज्ञान-प्राप्ति में तू सन्तोष करके कभी बैठ न जा। [ ख ] ( अन्तरिक्षे ) = हृदयान्तरिक्ष में ( तव ) = तेरा ( नाभिः ) = बन्धन हो [ नह बन्धने ]। मन ‘हृत् प्रतिष्ठ’ है—तू अपने मन को हृदय में स्थिर करने का प्रयत्न कर। अथवा ( अन्तरिक्षे ) = [ अन्तरा क्षि ] मध्यमार्ग में ( तव ) = तेरा ( नाभिः ) = बन्धन हो, अर्थात् तू सदा मध्यमार्ग में चलनेवाला बन। [ ग ] ( इत् ) = निश्चय से ( योनिः ) = तेरा घर ( पृथिव्याम् अधि ) = पृथिवी के ऊपर हो, तू अपने इस पार्थिव शरीर के अन्दर ही रहनेवाला हो—‘स्वस्थ’ हो। अथवा निश्चय से तेरा यह स्वस्थ शरीर तेरी सब उन्नतियों का कारण बने। ‘धर्मार्थकाममोक्ष’ सभी पुरुषार्थों का मूल यह आरोग्य ही तो है। एवं, तू ज्ञान से अपने मस्तिष्क को उज्ज्वल बना, सदा मध्यमार्ग पर चलते हुए अपने मन को वासनाओं से बचा और आरोग्य को सब उन्नतियों का मूल जानते हुए शरीर को स्वस्थ रखने के लिए यत्नशील हो। इस प्रकार तेरा प्रयत्न मस्तिष्क, मन व शरीर तीनों के लिए संविभक्त हो। 

    ४. एवं, नाभानेदिष्ठ अपने प्रयत्न को उचित संविभागपूर्वक विनियुक्त करता हुआ अपने उपास्य प्रभु की भाँति ही त्रि-विक्रम बनता है। उसका पुरुषार्थ शरीर, मन व बुद्धि तीनों के लिए होता है।

    भावार्थ -

    भावार्थ — हमारे जीवन का केन्द्र प्रभु हों। उस केन्द्र से ज्ञान, नैर्मल्य व स्वास्थ्य की रश्मियों का प्रसार हो।

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