Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 9/ मन्त्र 21
    सूक्त - काङ्कायनः देवता - अर्बुदिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त

    उत्क॑सन्तु॒ हृद॑यान्यू॒र्ध्वः प्रा॒ण उदी॑षतु। शौ॑ष्का॒स्यमनु॑ वर्तताम॒मित्रा॒न्मोत मि॒त्रिणः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । क॒स॒न्तु॒ । हृद॑यानि । ऊ॒र्ध्व: । प्रा॒ण: । उत् । ई॒ष॒तु॒ । शौ॒ष्क॒ऽआ॒स्यम् । अनु॑ । व॒र्त॒ता॒म् । अ॒मित्रा॑न् । मा । उ॒त । मि॒त्रिण॑: ॥१९.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्कसन्तु हृदयान्यूर्ध्वः प्राण उदीषतु। शौष्कास्यमनु वर्तताममित्रान्मोत मित्रिणः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । कसन्तु । हृदयानि । ऊर्ध्व: । प्राण: । उत् । ईषतु । शौष्कऽआस्यम् । अनु । वर्तताम् । अमित्रान् । मा । उत । मित्रिण: ॥१९.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 9; मन्त्र » 21

    पदार्थ -

    १. शत्रुओं के (हृदयानि) = हृदय (उत्कसन्तु) = शरीर से उद्गत हो जाएँ-उखड़ जाएँ। (प्राण:) = इन शत्रुओं का प्राणवायु (ऊर्ध्वः उदीषतु) = शरीर से ऊपर उठकर निकल जाए। (अमित्रान्) = शत्रुओं को (शौष्कास्यम्) = भय के कारण मुख का सूख जाना [निर्द्रवत्वम्] (अनुवर्तताम्) = अनुगत [प्राप्त] हो। उत-इसके विपरीत [On the other hand] (मित्रिण: मा) = हमारे मित्रभूत लोगों को आस्यशोष आदि प्रास न हो।

    भावार्थ -

    हमारे शत्रुओं के दिल उखड़ जाएँ, उनके प्राण शरीर से निकलने को हों और आस्य [मुख] शोषण से वे मृत्यु को प्राप्त हों। हमारे मित्रों की ऐसी स्थिति न हो।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top