अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 9/ मन्त्र 8
सूक्त - काङ्कायनः
देवता - अर्बुदिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
सं॒कर्ष॑न्ती क॒रूक॑रं॒ मन॑सा पु॒त्रमि॒च्छन्ती॑। पतिं॒ भ्रात॑र॒मात्स्वान्र॑दि॒ते अ॑र्बुदे॒ तव॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒म्ऽकर्ष॑न्ती । क॒रूक॑रम् । मन॑सा । पु॒त्रम् । इ॒च्छन्ती॑ । पति॑म् । भ्रात॑रम् । आत् । स्वान् । र॒दि॒ते । अ॒र्बु॒दे॒ । तव॑ ॥११.८॥
स्वर रहित मन्त्र
संकर्षन्ती करूकरं मनसा पुत्रमिच्छन्ती। पतिं भ्रातरमात्स्वान्रदिते अर्बुदे तव ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽकर्षन्ती । करूकरम् । मनसा । पुत्रम् । इच्छन्ती । पतिम् । भ्रातरम् । आत् । स्वान् । रदिते । अर्बुदे । तव ॥११.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 9; मन्त्र » 8
विषय - संकर्षन्ती-करूकरम्
पदार्थ -
१. हे (अर्बुदे) = शत्रुसंहारक सेनापते! (तव रदिते) = तेरे आक्रमण करने पर शत्रु-स्त्री (करुकरं संकर्षन्ती) = अपने हाथ-पैर की हड्डियों को ['करू' शब्द करनेवाली हस्तपादादिगत संधिवाली अस्थियाँ-करूकर] मचकाती हुई [हड्डियों को बैंचती हुई], (मनसा पुत्रम् इच्छन्ती) = मन से पुत्र को चाहती हुई-युद्ध में गये हुए पुत्रादि की मृत्यु के भय से घबराकर उनके जीवन की कामना करती हुई-(पतिं भ्रातरम्) = पति व भाई को चाहती हुई, (आत् स्वान्) = और अन्य बन्धुओं को चाहती हुई [क्रोशतु] विलाप करे।
भावार्थ -
युद्ध में अपने बन्धुओं की मृत्यु के भय से व्याकुल शत्रु-स्त्री, पुत्र, पति, भाई व बन्धुओं का विलाप करनेवाली हो।
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