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  • अथर्ववेद - काण्ड 11/ सूक्त 9/ मन्त्र 4
    सूक्त - काङ्कायनः देवता - अर्बुदिः छन्दः - त्र्यवसानोष्णिग्बृहतीगर्भा षट्पदातिजगती सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त

    अर्बु॑दि॒र्नाम॒ यो दे॒व ईशा॑नश्च॒ न्यर्बुदिः। याभ्या॑म॒न्तरि॑क्ष॒मावृ॑तमि॒यं च॑ पृथि॒वी म॒ही। ताभ्या॒मिन्द्र॑मेदिभ्याम॒हं जि॒तमन्वे॑मि॒ सेन॑या ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अर्बु॑दि: । नाम॑ । य: । दे॒व: । ईशा॑न: । च॒ । निऽअ॑र्बुदि : । याभ्या॑म् । अ॒न्तरि॑क्षम् । आऽवृ॑तम् । इ॒यम् । च॒ । पृ॒थि॒वी । म॒ही । ताभ्या॑म् । इन्द्र॑मेदिऽभ्याम् । अ॒हम् । जि॒तम् । अनु॑ । ए॒मि॒ । सेन॑या ॥११.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अर्बुदिर्नाम यो देव ईशानश्च न्यर्बुदिः। याभ्यामन्तरिक्षमावृतमियं च पृथिवी मही। ताभ्यामिन्द्रमेदिभ्यामहं जितमन्वेमि सेनया ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अर्बुदि: । नाम । य: । देव: । ईशान: । च । निऽअर्बुदि : । याभ्याम् । अन्तरिक्षम् । आऽवृतम् । इयम् । च । पृथिवी । मही । ताभ्याम् । इन्द्रमेदिऽभ्याम् । अहम् । जितम् । अनु । एमि । सेनया ॥११.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 9; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. (य:) = जो (अर्बुदिः नाम) = 'अर्बुदि' नामवाला मुख्य सेनापति है, वह (देव:) = शत्रुओं को जीतने की कामनावाला है [दिब् विजिगीषायाम्], (च) = और (न्युर्बुदि) = अधीनस्थ सेनापति (ईशान:) = शत्रुओं को जीतने में समर्थ है। ये अर्बुदि व न्यर्बुदि वे हैं (याभ्याम्) = जिनसे (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्ष (च) = और (इयं मही पृथिवी) = यह महती पृथिवी (आवृतम्) = आवृत की गई है। वायुसेना द्वारा अन्तरिक्ष आवृत किया गया है, तथा नौसेना व स्थल [पदाति] सेना से यह प्रथिवी आवृत की गई है। २. (ताभ्याम्) = उन द्यावापृथिवी को व्याप्त करके वर्तमान (इन्द्रमेदिभ्याम्) = राजा के प्रति पूर्ण स्नेहवाले अर्बुदि व न्यर्बुदि द्वारा (सेनया) = सेना के द्वारा (जितम्) = जीते हुए प्रदेश को (अहे अनु एमि) = मैं अनुकूलता से प्राप्त होता हूँ।

    भावार्थ -

    अर्बुदि व न्यर्बुदि शत्रुओं को जीतने की कामनावाले व शत्रुओं को जीतने में समर्थ हों। ये अन्तरिक्ष व पृथिवी को वायुसेना व स्थलसेना से आवृत करके शत्रुप्रदेश को जीतनेवाले बनें। वे प्रदेश हमारे लिए अनुकूलता से गति करने योग्य बनें।

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