Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 23
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - निचृत् बृहती, स्वरः - मध्यमः
    1

    कस्त्वा॒ विमु॑ञ्चति॒ स त्वा॒ विमु॑ञ्चति॒ कस्मै॑ त्वा॒ विमु॑ञ्चति॒ तस्मै॑ त्वा॒ विमु॑ञ्चति॒। पोषा॑य॒ रक्ष॑सां भा॒गोऽसि॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कः। त्वा॒। वि। मु॒ञ्च॒ति॒। सः। त्वा॒। वि। मु॒ञ्च॒ति॒। कस्मै॑। त्वा॒। वि। मु॒ञ्च॒ति॒। तस्मै॑। त्वा॒। वि। मु॒ञ्च॒ति॒। पोषा॑य। रक्ष॑साम्। भा॒गः। अ॒सि॒ ॥२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कस्त्वा विमुञ्चति स त्वा विमुञ्चति कस्मै त्वावि मुञ्चति तस्मै त्वा विमुञ्चति । पोषाय रक्षसाम्भागो सि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कः। त्वा। वि। मुञ्चति। सः। त्वा। वि। मुञ्चति। कस्मै। त्वा। वि। मुञ्चति। तस्मै। त्वा। वि। मुञ्चति। पोषाय। रक्षसाम्। भागः। असि॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 23
    Acknowledgment

    भावार्थ -

     हे यज्ञ ! यज्ञमय कर्मबन्धन ! (त्वा ) तुझको (कः विमुञ्चति) कौन मुक्त करता है ? ( त्वा सः विमुञ्चति ) तुझको वह जिसने यज्ञ समाप्त कर लिया है, मुक्त करता है ? ( कस्मै त्वा विमुञ्चति ) तुझको वह किस प्रयोजन से मुक्त करता है (त्वा) तुझ को वह ( तस्मै ) उस लोकोत्तर ब्रह्मानन्द को प्राप्त करने के लिये मुक्त करता है । हे यज्ञ से प्राप्त सत् अन्न !  तू (पोषाय ) आत्मा शरीर को पुष्ट करने हारा है और हे दुष्ट पापमय अन्न ! तू ( रक्षसां भागः असि ) दुष्ट पुरुषों के सेवन करने योग्य है । 
    अथवा - [प्रश्न ] हे पुरुष ! ( त्वा ) तुझको कर्मबन्धन के दुःख से (कः ) कौन ( विमुञ्चति ) विशेष रूप से मुक्त करता है। [ उत्तर ] ( सः ) वह सर्वोत्तम परमेश्वर ही (त्वा ) तुझको कर्मबन्धन से मुक्र करता है! [ प्र० ] (त्वा कस्मै विमुञ्चति ) वह परमेश्वर तुझे किस कार्य के लिये या किस हेतु से मुक्त करता है। [ उ० ] (तस्मै त्वा विमुञ्चति ) तुझे उस महान् मोक्ष प्राप्ति के लिये मुक्त करता है | [प्र० ] ये सब संसार के उत्तम पदार्थ और कर्मसाधनाएं किसके लिये हैं ? [ उ० ] ये समस्त कर्मसाधनाएं (पोषाय ) आत्मा को पुष्ट करने के लिये हैं । [ प्र० ] तब ये कर्मफल, भोग विलास आदि किसके लिये हैं । [ उ० ] हे विलासमय तुच्छ भोग ! तू ( रक्षसाम्)) विघ्नकारी, मुक्तिमार्ग के बाधक लोगों के ( भागः ) सेवन करने योग्य अंश ( असि ) है । शत० १ । ७ । २ । ३३ ।। 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः । 
    प्रजापती रक्षश्च देवताः । निचृद् बृहती। मध्यमः ।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top