यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 16
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - पूर्वार्द्धे द्यावापृथिवी मित्रावरुणौ च देवताः
छन्दः - भूरिक् आर्ची पङ्क्ति,भूरिक् त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः, पञ्चम
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वसु॑भ्यस्त्वा रु॒द्रेभ्य॑स्त्वादि॒त्येभ्य॑स्त्वा॒ संजा॑नाथां द्यावापृथिवी मि॒त्रावरु॑णौ त्वा॒ वृष्ट्या॑वताम्। व्यन्तु॒ वयो॒क्तꣳ रिहा॑णा म॒रुतां॒ पृष॑तीर्गच्छ व॒शा पृश्नि॑र्भू॒त्वा दिवं॑ गच्छ॒ ततो॑ नो॒ वृष्टि॒माव॑ह। च॒क्षु॒ष्पाऽअ॑ग्नेऽसि॒ चक्षु॑र्मे पाहि॥१६॥
स्वर सहित पद पाठवसु॑भ्य॒ इति॒ वसु॑ऽभ्यः। त्वा॒। रु॒द्रेभ्यः॑। त्वा॒। आ॒दि॒त्येभ्यः॑। त्वा॒। सम्। जा॒ना॒था॒म्। द्या॒वा॒पृथि॒वी॒ऽ इति॑ द्यावाऽपृथिवी। मि॒त्रावरु॑णौ। त्वा॒। वृष्ट्या॑। अ॒व॒ता॒म्। व्यन्तु॑। वयः॑। अ॒क्तम्। रिहा॑णाः। म॒रुता॑म्। पृष॑तीः। ग॒च्छ॒। व॒शा। पृश्निः॑। भू॒त्वा। दिव॑म्। ग॒च्छ॒। ततः॑। नः। वृष्टि॑म्। आ॑। व॒ह॒। च॒क्षु॒ष्पाः। अ॒ग्ने॒। अ॒सि॒। चक्षुः॑। मे॒। पा॒हि॒ ॥१६॥
स्वर रहित मन्त्र
वसुभ्यस्त्वा रुद्रेभ्यस्त्वादित्येभ्यस्त्वा सञ्जानाथान्द्यावापृथिवी मित्रावरुणौ त्वा वृष्ट्यावताम् । व्यन्तु वयोक्तँ रिहाणाः मरुताम्पृषतीर्गच्छ वशा पृश्निर्भूत्वा दिवङ्गच्छ ततो नो वृष्टिमावह । चक्षुष्पाऽअग्नेऽसि चक्षुर्मे पाहि ॥
स्वर रहित पद पाठ
वसुभ्य इति वसुऽभ्यः। त्वा। रुद्रेभ्यः। त्वा। आदित्येभ्यः। त्वा। सम्। जानाथाम्। द्यावापृथिवीऽ इति द्यावाऽपृथिवी। मित्रावरुणौ। त्वा। वृष्ट्या। अवताम्। व्यन्तु। वयः। अक्तम्। रिहाणाः। मरुताम्। पृषतीः। गच्छ। वशा। पृश्निः। भूत्वा। दिवम्। गच्छ। ततः। नः। वृष्टिम्। आ। वह। चक्षुष्पाः। अग्ने। असि। चक्षुः। मे। पाहि॥१६॥
विषय - विद्वान् प्रजाओं के लिये राजा का अभिषेक, उसकी रक्षा, उत्तम राज्य की प्राप्ति तथा आधिभौतिक यज्ञ का वर्णन ।
भावार्थ -
-हे राजन् ! (त्वा ) तुझको ( वसुभ्यः ) वसु नामक राष्ट्र में बसने वाली वसुओं, प्रजाजनों, ब्राह्मणों ( रुद्रेभ्यः ) शत्रुओं को रुलाने वाले बलवान् शस्त्रास्त्र कुशल क्षत्रिय वीरों और ( आदित्येभ्यः ) आदान प्रतिदान करने वाले वैश्यों के लिये अथवा वसु, रुद्र, आदित्य, इन तीन प्रकार के ब्रह्म- निष्ठों के हित के लिये प्रजापति रूप से अभिषिक्त करता हूँ । ( द्यावापृथिवी संजानाथाम् ) द्यौ और पृथिवी दोनों को प्रजाएं (त्वा संजानाथाम्) तुझे अपनावें (मित्रावरुणौ ) मित्र और वरुण, सूर्य और मेघ (त्वा) तुझे और तेरे राष्ट्र की ( वृष्टया अवताम् ) वृष्टि द्वारा रक्षा करें। ( रिहाणाः ) नाना प्रकार की स्तुति करने हारे विद्वान जन ( वयः ) गान करने वाले पक्षियों के समान ( अक्तम् ) प्रकाशमान प्रतापी बलशाली तेरे पास, तेरी शरण में ( व्यन्तु ) आवें, तुझे प्राप्त हों। (मरुताम् ) मरुत्, वायुओं के वेग से चलने वाले ( पृषती: ) सेनाओं को प्राप्त हो। और तू हे राजन् ! क्षत्रिय ( वशा ) अपने वशीभूत ( पृश्निः ) रसों का ग्रहण करने वाली भूमि के समान होकर तू ( दिवं गच्छ ) द्यौलोक को उत्तम राज्य को प्राप्त हो । ( ततः नः ) वहां से हमें ( वृष्टिम् ) ऐश्वर्य सुखों की वर्षा को ( आवह ) प्राप्त करा । हे (अग्ने) अग्ने ! तू ( चक्षुः पाः असि ) हमारी दर्शन शक्ति की रक्षा करने हारा है। ( मे चक्षुः पाहि ) मेरे देखने के साधन चक्षु और विद्वानों की रक्षा कर ।। शत०१।८।३।१२।१९ ॥
यज्ञपक्ष में - ८वसुओं, ११ रुद्रों और १२ आदित्य, १२ मासों के लिये मैं यज्ञ करता हूं। सूर्य का प्रकाश और भूमि ये दोनों उत्तम रीति से जानें। मित्र और वरुण, सर्वप्राण बाह्य वायु और अन्तस्थ उदान वायु दोनों ( वृष्टय) शुद्ध जल वर्षण द्वारा संसार की रक्षा करते हैं। जिस प्रकार पक्षी अपने स्थान को जाते हैं उसी प्रकार अर्चना करते हुए हम यज्ञ में आवें । ( वशा पृश्निः) कामित आहुति अन्तरिक्ष में जाकर ( मरुतां दिवं गच्छ ) वायुओं के संग्रह से द्यौलोक में सूर्य के तेज से मिले । तब वह ( वृष्टिम् आवह पृषती: ) वर्षा लावें, वह नदियों, नाड़ियों में बहे । ( अग्निः ) भौतिक अग्नि, दीपक जिस प्रकार आंख को अन्धकार से बचाता है उसी प्रकार सूर्य भी आँखों का रक्षक है, वह हमारी चक्षुओं की रक्षा करे | शत० १।२।३।१२-१६ ॥
टिप्पणी -
१६ 'मरुतां० आवह' इत्यस्यकपिॠषि प्रस्तरो देवता । मरुतां कपिबृहतीप्रास्तरीमिति सर्वा० "व्यन्तु वयो रिप्तो रिहाणा मरुतां पृषतीगच्छ०" | चक्षुष्पा असि० इति काण्वः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः )
द्यावापृथिवी मित्रावरुणौ च देवताः । निचृदार्ची पंक्तिः पञ्चमः । ( १ ) विराट् त्रिष्टुप् । (२) धैवतः ॥
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