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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 30
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भूरिक् पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
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    ये रू॒पाणि॑ प्रतिमु॒ञ्चमा॑ना॒ऽअसु॑राः॒ सन्तः॑ स्व॒धया॒ चर॑न्ति। प॒रा॒पुरो॑ नि॒पुरो॒ ये भर॑न्त्य॒ग्निष्टाँल्लो॒कात् प्रणु॑दात्य॒स्मात्॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये। रू॒पाणि॑। प्र॒ति॒मु॒ञ्चमा॑ना॒ इति॑ प्रतिऽमुञ्चमा॑नाः। असु॑राः। सन्तः॑। स्व॒धया॑। चर॑न्ति। प॒रा॒पुर॒ इति॑ परा॒ऽपुरः॑। नि॒ऽपुर॒ इति॑ नि॒पुरः॑। ये। भर॑न्ति। अ॒ग्निः। तान्। लो॒कात्। प्र। नु॒दा॒ति॒। अ॒स्मात् ॥३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमानाऽअसुराः सन्तः स्वधया चरन्ति । परापुरो निपुरो ये भरन्त्यग्निष्टान्लोकात्प्र णुदात्यस्मात् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ये। रूपाणि। प्रतिमुञ्चमाना इति प्रतिऽमुञ्चमानाः। असुराः। सन्तः। स्वधया। चरन्ति। परापुर इति पराऽपुरः। निऽपुर इति निपुरः। ये। भरन्ति। अग्निः। तान्। लोकात्। प्र। नुदाति। अस्मात्॥३०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 30
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    भावार्थ -

    ( ये ) जो लोग ( रूपाणि ) रुचिकर पदार्थों को ( प्रति मुञ्चमानाः ) त्यागते हुए ( असुराः ) केवल प्राण अर्थात् इन्द्रियों के भोगों में रमण करते ( सन्तः ) हुए ( स्वधया ) अपने बलसे या पृथिवी के शापन बल सहित ( चरति ) विचरण करते हैं और ( ये ) जो ( परापुरः ) दूर दूर तक बड़े २ अपने पुर बनाते हैं और ( निपुर: ) नीचे भूमि में अपने पुर बनाते अथवा जो ( परापुरः ) परित्याग करने योग्य काम्य स्वार्थों को पूर्ण करते और (निपुरः) जो नीच निकृष्ट वासनाओं को पूर्ण करते हैं अथवा ( परापुर : निपुर: ) स्थूल और सूक्ष्म देहों को ( चरन्ति ) पोषण करते हैं अग्निः ) अग्नि, दुष्टों का सन्तापक राजा अग्रणी नेता ( तान् ) उन लोगों को ( अस्मात् लोकात् ) इस लोक से ( प्र नुदाति ) निकाल दे॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः )
    कव्यवहनोग्निर्देवता । भुरिक् पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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