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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 29
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - स्वराट् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    अ॒ग्नये॑ कव्य॒वाह॑नाय॒ स्वाहा॒ सोमा॑य पितृ॒मते॒ स्वाहा॑। अप॑हता॒ऽअसु॑रा॒ रक्षा॑सि वेदि॒षदः॑॥२९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नये॑। क॒व्य॒वाह॑ना॒येति॑ कव्य॒ऽवाह॑नाय। स्वाहा॑। सोमा॑य। पि॒तृ॒मत॒ इति॑ पितृ॒ऽमते॑। स्वाहा॑। अप॑हता॒ इत्यप॑ऽहताः। असु॑राः। रक्षा॑सि। वे॒दि॒षदः॑। वे॒दि॒सद॑ इति॑ वेदि॒ऽषदः॑ ॥२९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नये कव्यवाहनाय स्वाहा सोमाय पितृमते स्वाहा अपहताऽअसुरा रक्षाँसि वेदिषदः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नये। कव्यवाहनायेति कव्यऽवाहनाय। स्वाहा। सोमाय। पितृमत इति पितृऽमते। स्वाहा। अपहता इत्यपऽहताः। असुराः। रक्षासि। वेदिषदः। वेदिसद इति वेदिऽषदः॥२९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 29
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    भावार्थ -

    ( कव्यवाहनाय ) कवि, क्रान्तदर्शी विद्वानों के हितकारी अन्न या ज्ञान को धारण करने वाले ( अग्नये ) अग्नि, मार्गदर्शक, तेजस्वी आचार्य एवं विद्वान् के लिये (सु आहा) उत्तम अन्नदान करो और आदरपूर्वक वचन बोलो। (पितृमते सोमाय स्वाहा) पिता, माता और गुरुजनों से युक्र सोम. ज्ञानवान्, नवयुवक विद्वान् ब्रह्मचारी जिज्ञासु के लिये ( स्वाहा ) उत्तम अन्न का दान और आदरपूर्वक सुन्दर वचन का प्रयोग करो ! (वेदिषदम् ) वेदि में अर्थात् पृथिवी में समस्त उपयोगी, उत्तम पदार्थ के लाभ करा देने वाली इस यज्ञभूमि में विद्यमान ( रक्षांसि ) दूसरों के पीड़ाकारी स्वार्थी, विघ्नकारी(असुराः) केवल असु, प्राणों में रमण करने वाले अर्थात् इन्द्रियों के विषय भोगों में ही जीवन का व्यय करने वाले, विषयविलासी पुरुषों को ( अपहताः ) मार कर दूर भगा दिया जाय ॥ 
    भौतिक पक्षमें - कव्यवाहन, ज्ञानी पुरुषों के कार्यों को चलाने वाले अग्नि को उत्तम रीति से प्रयोग करके ऋतु और पालकों से युक्त सोम राजा या प्रधान पुरुष के आदर द्वारा दुष्ट पुरुषों का नाश किया जाय॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः )
    प्रजापतिःऋषिः । मन्त्रोक्ता अग्निसोमसुरा देवताः ॥

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