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  • यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 21
    ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    श॒मि॒ता नो॒ वन॒स्पतिः॑ सवि॒ता प्र॑सु॒वन् भग॑म्।क॒कुप् छन्द॑ऽइ॒हेन्द्रि॒यं व॒शा वे॒हद्वयो॑ दधुः॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒मि॒ता। नः॒। वन॒स्पतिः॑। स॒वि॒ता। प्र॒सु॒वन्निति॑ प्रऽसु॒वन्। भग॑म्। क॒कुप्। छन्दः॑। इ॒ह। इ॒न्द्रि॒यम्। व॒शा। वे॒हत्। वयः॑। द॒धुः॒ ॥२१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शमिता नो वनस्पतिः सविता प्रसुवन्भगम् । ककुप्छन्द इन्द्रियँवशा वेहद्वयो दधुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शमिता। नः। वनस्पतिः। सविता। प्रसुवन्निति प्रऽसुवन्। भगम्। ककुप्। छन्दः। इह। इन्द्रियम्। वशा। वेहत्। वयः। दधुः॥२१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 21; मन्त्र » 21
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    भावार्थ -
    (वनस्पतिः) वन का पालक या वट आदि महावृक्ष के समान (शमिता) शान्ति और शरण देने वाला (सविता) और सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष (भगम् ) सेवन करने योग्य ऐश्वर्य को ( प्रसुवन् ) उत्पन्न करता है, वह (ककुप् छन्दः) ककुप्-२८ अक्षरों का छन्द, तदनुसार २८ वर्ष के ब्रह्मचर्य पालक पुरुष (वशा) पृथ्वी, राष्ट्र को वश करने वाली सभा और ( वेहत् ) दुष्टों के षड्यन्त्रों को गर्भ में ही विविध उपायों से नाश करने वाली राजा की नीति, ये सब (इह) ऐश्वर्य से पूर्ण, राष्ट्र और राजा में ( वयः) दीर्घ जीवन, बल और ( इन्द्रियम् ) ऐश्वर्य को स्वयं (दधुः) धारण करें और करावें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अनुष्टुप् । गान्धारः ॥

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